Tuesday, December 29, 2009

चारों ओर चिल्लपों मची है

चारों ओर चिल्लपों मची है कि यह साल गुजर रहा है और नया साल आ रहा है। जब सभी इस तरह हमें बताने में जुटे हैं तो हम भी ऐलानिया तौर पर मान लेते हैं कि यह साल गुजर रहा है और नया साल आ रहा है। वैसे सच कहूँ मुझे पहले से ही मालूम था कि यह साल गुजर रहा है और नया साल आ रहा है।

सब लोग पीछे देख रहे हैं। लेखा जोखा कर रहे हैं कि इस गुजरते साल में क्या क्या हुआ। कौन सी फिल्म हिट रही। कौन सी हीरोइन सेक्सी रही। यह सब हमें ऐसे बताया जा रहा है जैसे कि दिसंबर के जाते न जाते उस हीरोइन की सेक्स अपील समाप्त हो जायेगी।
तो हमने भी साहब पीछे देखना शुरू किया

मोमबत्ती जलाई तो परवाना याद आया
दिसंबर में ही गुजरा जमाना याद आया
हम करते रहे काक चेष्टा बकुल ध्यानम
उनको कोई ले उड़ा हमें फसाना याद आया।

अब और पीछे नहीं देखा जाता। चलिये आगे देखते हैं।
सही समय है ज्ञान की बाँटने के लिये। जॉर्ज कारलिन के बारे में पढ़ रहा था। उनकी कही कुछ बातें यहाँ दे रहा हूँ।मुलाहिजा फरमाइये-

यह विडंबना ही है कि
हमारी इमारतें ऊँची हैं पर हमारी सहनशक्ति छोटी है
चौैड़ी सड़कें हैं पर सँकरा दृष्टिकोण है
हमारे खर्चे बड़े है पर हमारे पास जो भी है बहुत कम है
हम खरीदते ज्यादा हैंे पर आनंदित कम ही होते हैं
घर बड़े हैं परिवार छोटे। सुविधायें अधिक पर समय कम
डिग्रियाँ अधिक हैं पर अक्ल कम है। अधिक ज्ञान पर समझ कम है।

नया साल आप सब लोगों के लिये सुख, शांति और समृद्धि लाये।

Thursday, December 24, 2009

मैं भी कहाँ शिकायत कर रहा हूँ!

दफ्तरी जीवन से अवकाश प्राप्त करने के बाद अपनी दिनचर्या एकदम बदल गई है। सुबह देर से नींद खुलती है। आलस के मारे बिस्तर छोड़ते छोड़ते आठ तो बज ही जाते हैं। सुबह घूमने की इच्छा इच्छा ही रह गई है। आज दृढ़ निश्चय के साथ सुबह प्रात: भ्रमण के निकला तो वह दिखाई पड़ा। चुस्त दुरुस्त कंधे में झोला लटकाये हुये। वह मुझे देख कर मुस्कराया। प्रत्युत्तर में मैंने भी अपनी लुभावनी मुस्कान बिखेर दी। पहल उसीने की। 

 'मॉर्निंग वाक' को जा रहे हैं?' 

 'जी हाँ।' 

'अभी इतनी देर में!' 

'क्यों अभी नौ ही तो बजा है।' 

'मेरे लिये तो नौ बजे बहुत देर हो जाती है। मैं साढ़े सात बजे ही निकल जाता हूँ। बहुत ही अच्छा समय रहता है 'मॉर्निंग वाक' के लिये।' 

'सही फरमाया आपने। पर नौ बजे भी कोई देर नहीं हुई है। वैसे समय अपना है, मैं ऑफिस जाने के झंझट से मुक्त हो चुका हूँ।' 

'रिटायर तो मैं भी हो चुका हूँ। दस साल पहले। फिर भी देखिये हर रोज सुबह साढ़े सात बजे बिना नागा निकल जाता हूँ।' 

 जिस हिसाब से वह कमर में हाथ रख कर इत्मिनान से बातें कर रहा था, मुझे लगा कि ढील दे दो तो वह घंटों ऐसे ही खड़े-खड़े बातें करता रहेगा। 

मैंने इतने कष्ट के साथ यह मॉर्निंग वाक की रुटीन बनाई है, वह टूट जायेगी। एक बार रुटीन टूटी तो फिर शुरू करने में कई दिन निकल जायेंगे। वह कहे जा रहा था-  

'एक घंटा वाक करता हूँ। तेज चाल वाला ब्रिस्क वाक, समझ रहे हैं ने आप। उसके बाद में पार्क में बैठ कर आधा घंटा प्राणायाम करता हूँ। अभी बाजार से हरी सब्जी ले कर लौट रहा हूँ। मैं नाश्ते में रोज हरी सब्जी खाता हूँ। दस साल पहले रिटायर हुआ। मुझे देखिये अभी तक फिटफाट हूँ।' 

'फिर भी काम तो रहते ही हैं।' कह कर खिसियानी सी हँसी के साथ आगे बढ़ गया। जान बची लाखों पाये। जान कहाँ बची साहब चार दिनों के बाद वे फिर दिख गये। मैं कन्नी काट कर निकले ही वाला था कि उन्होंने धर दबोचा। 'आज फिर आप देर से निकले हैं। अब तो धूप भी निकल आई है। यह देखिये आज मुझे ताजे टमाटर मिल गये। मैं रोज सुबह टमाटर का रस पीता हूँ। आप भी पिया कीजिये। स्वास्थ्य के लिये बड़े लाभदायक हैं टमाटर।' 

'अभी मैं चलता हूँ, मुझे देर हो जायेगी।' मैंने जान छुड़ाने का प्रयत्न किया। 

'अरे आप तो कहते थे कि समय अपना है।' और वह ह ह ह ह कर हँसने लगा। कहने का मन तो हुआ कि समय अपना है तो क्या तुम पर लुटा दूँ। पर बिना कुछ कहे कुढ़ता हुआ आगे निकल गया। और मैंने मार्निंग वाक का अपना रास्ता बदल दिया। अपनी किस्मत इस नये रूट पर भी एक दिन उससे फिर मुलाकात हो गई। 

'अरे तो आप इस तरफ से जाते हैं। तभी आपसे इतने दिन मुलाकात नहीं हुई।' 

'जी।' मैंने कहा। 

'हाँ यह रास्ता आपके लिये आसान पड़ता होगा। इसमें कम चलना पड़ता है। अपना तो वही मेन रोड वाला रास्ता है। पूरे छह किलोमीटर का है।'

जलभुन कर मैंने पूछा, 'तो आप आज इस तरफ कैसे? 

'आगे नुक्कड़ पर हरी सब्जी वाला बैठता है। यह देखिये ताजा मेथी। मधुमेह में बहुत लाभदायक है।' 

'तो आपको मधुमेह है।' 

'हाँ वही एक बीमारी है। नहीं तो देख लीजिये मैं एकदम फिटफाट हूँ। दस साल हो गये हैं मेरी रिटायरमेंट को। आप कब रिटायर हुये?' 

'मुझे भी दस साल हो गये हैं।' मैंने कह दिया हालाँकि मुझे अभी दो ही साल हुये हैं। 

'तो आप भी अड़सठ साल के हैं।' 

'नहीं तो मैंने अभी अठहत्तरवाँ पूरा किया है।' मैंने जड़ दिया। उसके मुँह पर जो भाव आये उन्हें देख कर मुझे अपूर्व सुखानुभूति हुई। अपने इस झूठ पर मुझे गर्व होने लगा। मैंने अपना बासठवाँ साल ही पूरा किया है। 

'अभी तो आप कह रहे थे कि आपको रिटायर हुये दस साल ही हुये हैं।' वह बहुत ही कन्फ्यूज्ड लग रहा था। 

'जी हाँ। मैं एक वैज्ञानिक हूँ। हमारे यहाँ रिटायरमेंट नहीं होता है। जब तक काम करने की इच्छा हो करो। दस साल पहले मैंने सोचा कि अब बहुत हो गया। अब रिटायर हो कर अपने बाकी शौक पूरे करूँ। अड़सठ साल में ही रिटायरमेंट ले लिया।' 

'आप लगते तो नहीं हैं अठहत्तर साल के।' 

'जी मैं अठहत्तर साल का ही हूँ।' अब मुझे उससे बात करने मैं बहुत मजा आने लगा था। 

'देखिये अभी तक एकदम फिटफाट हूँ। रोज छह बजे से आठ बजे तक कराटे की प्रैक्टिस करता हूँ। नौ बजे से दस बजे तक प्रात: भ्रमण के लिये जाता हूँ। आप भी आइये मेरे साथ। छह बजे से कराटे की प्रैक्टिस कीजिये। नौ बजे मार्निंग वाक कीजिये। आपकी यह मधुमेह की बीमारी भी दूर हो जायेगी। आप हैं तो अभी अड़सठ के पर दिखने में मुझसे बड़े लगते हैं। 

'अच्छा अभी मैं चलता हूँं। घर में इंतजार हो रहा होगा।' वह खिसकने लगा। 

'कल से आप आ रहे हैं तो कराटे के लिये।' मैंने पीछे से आवाज दी। कहीं हाँ बोल देता तो लेने के देने पड़ जाते पर वह हाँ बालने टाइप का नहीं लगा था। वह दिन है और आज का दिन है वह मुझे जब भी दिखाई पड़ता है हमेशा दूसरी तरफ के फुटपाथ पर दिखाई पड़ता है। मुझे देखते ही फुटपाथ बदल लेता है। मैं भी कहाँ शिकायत कर रहा हूँ!

 


Thursday, December 17, 2009

बस हाइजैक

यह घटना वास्तव में घटी है।

रात का समय था। बस हल्द्वानी से दिल्ली जा रही थी। रात के करीब दो बजे बस रामपुर पहुँची, वहाँ चार व्यक्ति बस में चढ़े। उस समय बस के यात्री निद्रा की विभिन्न अवस्थाओं में थे। कोई खरर्ाटे ले रहा था तो कोई करवट बदल रहा था। उन चारों पर किसी का ध्यान नहीं दिया। उन्होंने सीटें से ही रिजर्व करा रखीं थीं। कंडक्टर ने उन्हें खाली सीटों में बिठाया। मुरादाबाद बाईपास पार होते ही उन चारों में से एक जिसके चेहरे में चेचक के दाग थे ड्राइवर के पास गया और उसकी कनपटी में रिवाल्वर सटा दी। बस को वे लोग एक सुनसान खेत में ले गये और रिवाल्वरों के जोर पर यात्रियों को एक एक करके बाहर निकाला और उनके गहने पैसे लूट कर अपने साथ लाए बोरों में भर लिया। उसके बाद उन लोगों ने बस और पैसेंजरों को छोड़ दिया। लुटी हुई बस आगे बढ़ गई।
बस गजरौला करीब आधे घंटे के लिये एक ढाबे में रुक कर आगे बढ़ ही रही थी कि वे चार फिर आ गए। चेचक के दाग वाला उनका मुखिया लग रहा था। उसने बस के यात्रियों से कहा, आप लोगों का सब सामान हम लौटा रहे है। सामान नीचे दरी में पड़ा हुआ है। अपना सामान उठा लीजिए। इसके बाद वे कार में बैठ कर रफूचक्कर हो गये। यात्रियों ने देखा कि लूटा हुआ कैश तो वहाँ नहीं था पर गहने और सब सामान दरी में था।
लुटेरों की इस अजीब हरकत का खुलासा बस के ड्राइवर ने किया। इस हाईवे पर जब कोई भी बस लुटती है तो उसका एक बँधा हुआ रेट पुलिस को जाता है। बस से लुटेरे कितना ही क्यों न लूट लें पुलिस को उससे कोई मतलब नहीं। उनको उनकी पूर्व निर्धारित राशि मिलनी चाहिए। इस बस को लूटने पर उन चारों ने पाया कि कुल मिला के सामान की कीमत से पुलिस का ही चुकता नहीं होगा। उन्होंने सामान लौटा दिया। पुलिस को बता देंगे कि सामान कम निकला इसलिए लौटा दिया। इस तरह वे पुलिस को देने से, यानी घाटे के सौदे से बच जायेंगे।

Tuesday, December 15, 2009

चिराग का भूत - हँसी से भरपूर प्रहसन

अब पुस्तक रूप में।
पढ़िए दशा
 
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Saturday, November 28, 2009

वो बस मुस्कराये और जाँ निकल गई

श्रीमती जी को बेटी दामाद से मिलने की प्रबल इच्छा हुई। मुझसे कहा गया मैं जाती हूँ दुबई। एक महीने के बाद लौटूँगी। तब तक तुम मेरी बिल्लयों की देखभाल करना। मैं अकेला और मेरे साथ दो बिल्लियाँ। बस समझ लीजिये एक महीने तक यही चलेगा। बिल्लियाँ न होती तो मैं 'खोया खोया चाँद खुला आसमाँ' हो जाता। पर क्या करें बिल्लियाँ हैं और उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। पर जब आप एकाकीपन महसूस करते हैं तो बिल्लियों की संगत पर्याप्त नहीं होती। दो टॉग वाले प्राणियों की कमी खलने लगती है। वर्षों पहले लगभग ऐसी ही स्थिति थी जब मैं अकेला बैठा घर में लगभग बोर हो रहा था। उसी बोरियत में मैंने एक कविता लिखी थी

बैठा हूँ आज अकेला मैं
संध्या की बेला है और हाथ में हे मय
और कर रहा हूँ याद
बीते दिनों को हो कर तन्मय

इन चार पंक्तियों को छोड़ कर बाकी की कविता मैंने पहले ही यहाँ पोस्ट कर रखी है।

सोचा कुछ नया लिखूँ। चलो कविता ही सही। कौई मौजूँ विषय? - हाँ क्यों नहीं।
प्यार? - इससे बढ़ कर मौजूँ और क्या हो सकता है!

याद आया कि प्यार पर भी कुछ पहले ही पोस्ट कर चुका हूँ।
ऐसा क्यों होता है कि जिस विषय पर आप लिखना चाहते हैं आप पहले ही लिख चुके होते हैं!

पर प्यार में नया लिखने की बहुत संभावनाएँ हैं।

हजारों लाखों बार परिभाषित होते हुए भी आप पूछने के लिये वाध्य होते हैं कि आखिर है क्या यह प्यार?



इस विषय में हमारे भारत से अधिक जानकार कोई देश नहीं हो सकता। यहॉं साल में कई हजार करोड़ की लागत से साल में 2000 से अधिक फिल्में बनती है। सबका विषय एक ही है प्यार। फिर भी पूछने का दिल करता है कि आखिर है क्या यह प्यार?



60-70 वर्ष से हमारी फिल्में हमें प्यार के बारे में बता रही हैं कि प्यार किया नहीं जाता बस हो जाता है। पर कैसे होता है किसी को नहीं मालूम। Cause and effect वाला सिद्धांत यहाँ लागू नहीं होता। नायक गुफा कुदराओं से, रेगिस्तान से, बर्फीली चोटियों से, आस्‍ट्रेलिया से, अफ्रीका से दहाड़ता है कि प्यार हो गया है। कैसे हुआ, न तुम जानो, न मैं जानूँ। प्रेमी या प्रेमिका भले ही एक दूसरे की आगोश में आ जाय, पर प्यार पकड़ में नहीं आता है।
शायर लोग प्यार के मामले में बहुत कुछ कह गये हैं जिसका अर्थ न वो समझे हैं न किसी और को समझ में आता है। किसी शायर ने कुछ ऐसा भी कहा है 'अभी नादां हो, दिल रखा है तुम्हारे ही लिए, ले जाना जवाँ हो कर।' यह तो सीधे जेल की तरफ ले जाने वाला प्यार है।
प्यार की कुछ रूपों का मुलाहिजा फरमाइए
कॉल सेंटर वाला अपरिपक्व प्यार
जनम जनम का साथ वाला प्यार
जज्बये दिल किसे पेश करूँ वाला प्यार
जज्बये दिल कैसे पेश करूँ वाला प्यार
दिल चाहता है में अक्षय खन्ना वाला प्यार
वैलेन्टाइन डे वाला प्यार।

प्यार पर नीरक्षीर विवेचन होना चाहिये। क्या प्यार है, क्या नहीं है। जैसे, क्या क्षणिक आकर्षण प्यार है? क्या वासना रहित प्यार प्यार है? इत्‍यादि

प्यार पर मेरी एक सद्य:रचित कविता मुलाहिजा फरमाइए

न कहीं खून बहा, न चोट कोई,
वो बस मुस्कराये और जाँ निकल गई

फैशन की महफिल में हसीनों के जलवे थे
पर वाह रे तेरी सादगी, मीठी छुरी चुभो गई

देर में जाना फैशन का एक अंदाज है सादगी
खामखाँ लौ में एक पतिंगा जल गया है कोई

हमें तो इश्क हुआ, खेल इसको समझते हैं वो
हम बिरहा गा रहे हैं, मल्हार गा रहा है कोई

बेगैरत हम भी न थे क्यों जाते उसकी गली
वो तो बेखुदी थी जो हमें वहाँ तक ले गई

गीली रेत पर बना तो दिया है दिल
अब है इंतजार लहर जल्दी से आये कोई

Saturday, November 14, 2009

उसके बारे में

सभी जानते हैं उसके संबंध में लेकिन कोई भी उसका नाम अपनी जुबान पर नहीं लाता। नाम उच्चारण करने में बहुत अश्‍लील लगता है। पहले तो बड़े बड़े साइन बोर्डों में, नगरपालिका की दीवारों पर और सिनेमा के पर्दे पर ही उसका नाम दिखाई पड़ता था पर जबसे टेलीविजन लिया है ठीक बैठक के कमरे में उसके बारे में देखने और सुनने को मिलता है। लिहाजा मोहन चिंतित है।

मोहन की दो पुत्रियॉं हैं। एक नौ साल की है और दूसरी छह साल की। दोनों ने टी वी पर आने वाले सभी विज्ञापन याद कर रखे हैं। टूथपेस्ट के बारे में हो या प्रेसर कुकर के बारे में, घड़ी के बारे में हो या आम के अचार के बारे में, कोई भी ऐसा विज्ञापन नहीं जो उन दोनों को याद न हो। दोनों लड़कियॉं समवेत कंठ से टी वी के साथ साथ विज्ञापन की पंक्तियॉं दोहराती हैं। इन्हीं विज्ञापनों में एक उसके बारे में भी होता है। इस विज्ञापन को भी दोनों लड़कियॉं निश्‍छल भाव से दूसरे विज्ञापनों की तरह ही दोहराती हैं।

मोहन और उसकी पत्नी जब उन दोनों के मुँह से उस विज्ञापन को सुनते हैं तो ऐसा दिखाते हैं जेसे सुना ही न हो। ऐसा साहस उन दोनों में से किसी को भी नहीं है कि लड़कियों को मना कर सकें कि उस विशेष विज्ञापन को न दोहरायें। मना करने का कोई कारण भी नहीं सूझता उन दोनों को। इस डर से उनकी नींद हराम हो गयी है कि अगर दोनों में से किसी ने कुछ पूछ दिया कि वह क्या होता है तो वे क्या उत्तर देंगे! पत्नी के सामने तो मो‍हन बहुत बहादुर बनता है, किन्तु उस संभावित प्रश्‍न का उत्तर उसे नहीं सूझता।

'क्या उत्तर देंगे?' पत्नी पूछती है।

'सच बता देना। हर्ज ही क्या है!' मोहन कहता है।

'इतनी कच्ची उमर में क्या वह ठीक समझ पायेंगे! बेकार में गलत दिशा में उनका घ्यान खींचना ठीक होगा? मैं तो कुछ झूठ बोल कर बात टाल दूँगी।'

'नहीं नहीं बच्चों से झूठ नहीं बोलना चाहिये। फिर बच्चे भी तो कुछ समझते हैं ही, तुरन्त पकड़ लेंगे कि झूठ बोला जा रहा है। वे सोचेंगें ऐसा क्या है जो छिपाया जा रहा है। ऐसे में वे इस पर गलत तरीके से सोचेंगे। सच ही बोलना चाहिये।'

'कैसे?' पत्‍नी पूछती है।

'सच जैसे बोलते हैं। वैसे बाहर के देशों में तो इस संबंध में स्कूल में ही बता देते हैं।' मोहन का कहना था।

वे दोनों इसी तरह की बातें करते लेकिन इस समस्या का समाधान कैसे करेंगे इस विषय पर उनकी कोई सुलझी हुई धारणा नहीं थी। सब गोल था। उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन दोनों में से किसी ने अभी तक उसके बारे में नहीं पूछा था। वे टी वी के साथ विज्ञापन को दोहराती थीं बस।

किस्मत अच्छी थी केवल अब तक। अब छोटी ने उन्‍हें चिन्ता में डाल दिया था। कहने का अर्थ है कि पहले से अधिक चिन्ता में डाल दिया था। संभावित प्रश्‍न के पूछे जाने की संभावना अचानक बहुत अधिक बढ़ गयी थी। छोटी इस संबंध में बहुत कुछ सोच रही थी। उसकी बातों से यही लगता था। एक दिन उसने अपनी मॉं से पूछा था, 'मम्मी हम लोग दो ही हैं, दीदी और मैं। कितना अच्छा है न। तीन होते तो तुमको कितना कष्‍ट होता? खाने की मेज में जगह नहीं होती और सोने के लिये भी एक और पलंग लगाना पड़ता!'

और एक दिन उसने मोहन से कहा 'पापा स्कूटर में मम्मी और दीदी तो पीछे बैठते हैं और मैं सामने खड़ी होती हूँ। हम लोग तीन होते तो तुम क्या करते? तीसरे बच्चे को कहॉं बिठाते?'

उनके एक पड़ोसी के पॉंच बच्चे हैं। परिवार नियोजन के बारे में बेचारे को तब मालूम हुआ जब बहुत देर हो गयी थी। मोहन की छोटी मुन्नी उन बच्चों के बारे में बहुत चिन्तित थी। कई बार कह चुकी थी कि वे बेचारे एकसाथ बैठकर खाना नहीं खा सकते, एकसाथ पिक्चर नहीं जा सकते इत्यादि।

मोहन और उसकी पत्‍नी हम दो हमारे दो से संतुष्‍ट थे। छोटा परिवार सुखी परिवार। मुन्नी के इन नये प्रश्‍नों से एक नया डर पैदा कर दिया है उनके मन में। जिसको अभी तक असंभव किये बैठे हैं कहीं संभव हो गया तो क्या होगा? क्‍या मुँह दिखाऍंगे इन बच्‍चों को!

खैर यहॉं बात उसके बारे में हो रही थी जिसका विज्ञापन उनकी पुत्रियॉं टी वी के साथ दोहराती हैं। इस संबंध में एक दिन उनका डर साकार हो ही गया। टी वी में विज्ञापन आया। दोनों ने एक साथ दोहराया सुखी वैवाहिक जीवन के लिये ...............। छोटी दौड़ती हुई अपनी मॉं के पास गई और उसने पूछा, 'मम्मी वह क्या होता है?'

यह घटना रसोईघर में हुई। मोहन बैठक से सब देख रहा था। उसने देखा कि उसकी पत्नी सकपका गई है। प्रश्‍न संभावित अवश्‍य था। लेकिन पत्नी को आशा नहीं थी कि यह पहले उसीसे पूछा जाएगा। वह तैयार नहीं थी। सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई। उसने कहा, 'मुझे काम करने दो मुन्नी, जाओ खेलो।'

'क्या मम्मी इतनी रात को भी कोई खेलता है? बताओ न वह क्या होता है?'

'बेटा ऐसा होता है न कि जब अस्पताल में बच्चे पैदा होते हें तो....तो...देखो मेरी रोटी जल गई। मैं बाद में तुमको बता दूँगी हॉं। अभी मुझे खाना बनाने दो।'

'नहीं मम्मी अभी बताओ।'

'कहा ना बाद में बता दूँगी।' मुन्नी को डॉंटते हुए पत्नी ने कहा।

'मुन्‍नी को क्यों डॉंटती हो?' मोहन ने कहा। 'डॉंटना ठीक नहीं है। उसे बता दो। उसकी जिज्ञासा शांत कर दो बस।'

'मुन्‍नी बेटा ऐसा करो अपने डैडी से पूछ लो।' मोहन की पत्नी ने कहा।

मोहन को इसकी आशा नहीं थी। मुन्नी दौड़ती हुई उसके पास गई और उसने पूछा, 'पापा मम्मी नहीं बता रही है। तुम बताओ न वह क्या होता है?'

'मुन्‍नी अपनी मम्मी से बाद में पूछ लेना। देखो मैं अभी कुछ पढ़ रहा हूँ।' मोहन ने बचने का प्रयत्न किया।

'नहीं नहीं अभी बताओ।' मुन्नी ने जिद की और मोहन ने बताना आरंभ किया।

'बेटा ऐसा होता है न कि ....' इसके आगे मोहन की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले। फिर साहस करके आगे कहा। 'ऐसा होता है न कि अस्पताल होता है जहॉं बच्चे पैदा होते हैं...।' इसके बाद उसने अस्पताल और उसकी बिल्डिंग का लंबा चौड़ा विवरण प्रस्तुत किया इस आशा से कि मुन्नी अपना प्रश्‍न भूल जाएगी। वह भूलती भला। उसने कहा 'पापा तुम ठीक नहीं बता रहे हो बताओ न वह क्या होता है?'

'मुन्‍नी मुझे नहीं मालूम है।' मोहन ने हथियार डालते हुये कहा। उसे यह डर लगा हुआ था कि कहीं बड़ी लड़की भी न पहुँच जाय जो अभी टी वी देखने में व्यस्त थी।

'तुम बुद्धू हो और मम्मी भी बुद्धू है। मुझे मालूम है कि वह क्या होता है।' मुन्नी ने उछलते हुये कहा।

पत्‍नी रसोई से बाहर आ गई। दोनों ने एक स्वर में मुन्नी से पूछा, 'तुम क्या जानती हो उसके बारे में?'

'उससे परिवार नियोजन होता है।' मुन्नी ने कहा।

Thursday, November 12, 2009

एक पल



यह नि:शब्द रात यह स्वच्छ चांदनी पेडों पर
यह झींगुर का बोलना यह मेढक की टर्र टर्र
शहर के कोलाहल से दूर इस गांव में
क्या यह स्वर्ग उतरा है धरती पर

यह तारों भरा आसमान यह मधुर मंद बयार
हौले हौले से उडते ये तुम्हारे केश अपार
यह चांदनी कितनी रहस्यमय लगती है तुम पर
प्रिये टहरो, बैठ जाओ उस पत्थर पर

यह चंचल नयन तुम्हारे लिए एक मंद हास
कर रहे शरारत होंठ बोलने का है कुछ प्रयास
क्यों न भूलें भूत औ भविष्यत हम
यही तो है पल इसी के लिए जींएं हम

आगे तो मिलेंगे नित्य जीवन के झमेले
कल तो आयेंगे छोटे बडे दुखों के मेले
चलो बदल डालते हैं समय काल का विधान
बनाते हैं एक आयु इसी पल को खींच तान

मथुरा कलौनी

Thursday, November 5, 2009

अलोहा

कभी कभी अपराध बोध होता है कि मैंने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। अधिकतर सोच में पड़ जाता हूँ कि लिखूँ तो क्या लिखूँ। यह कंप्यूटर की देन है कि मुझे RSI व्याधि है। यानी देर तक कीबोर्ड प्रयोग करने पर मेरे हाथ में दर्द होने लगता है। मैं मन को सांत्वना दे लेता हूँ कि मुझे नहीं लिखने का बहाना ढ़ूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। अरे विषय मिल भी जाय तो क्या हुआ, टाइप तो नहीं कर पाऊँगा न! हाथ में दर्द जो होने लगेगा!

पर पढ़ने में जो कोई बाधा नहीं। न सृजन की व्यथा, न RSI । तो साहब जब मुझे लिखना चाहिए और जब मैं लिखने के लिये समय निकालता हूँ तो लिखने से जान छुड़ाने के लिये मैं ब्लॉग पढ़ता हूँ। विशेष कर टिप्पणियाँ पढ़ने में मुझे बहुत आनंद आता है। मैंने पाया है कि अँंग्रजी ब्लागों में लोग रचना या विषय से अभिभूत हो कर टिप्पणी करते हैं या अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। हिन्दी ब्लॉगों के टिप्पणीकार थोड़ा हट कर हैं। अधिकांश तो रचना का एक अंश copy paste कर लिखते हैं 'बहुत खूब'। कुछ केवल 'बहुत बढ़िया' लिख कर खिसक लेते हैं। यह 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया' बिल्ली के म्याऊँ जैसा है। पता ही नहीं चलता कि म्याऊँ में क्या छिपा है, प्यार, गुस्सा, तारीफ या गाली। बहुत कुछ होनोलूलू के 'अलोहा' जैसा। पहले लगा कि वहाँ स्वागत में 'अलोहा' कहते हैं। पर शीघ्र ही पता चला कि आओ तो 'अलोहा', जाओ तो 'अलोहा', खाओ तो 'अलोहा' कुछ नहीं करो तब भी 'अलोहा'।
ऐसे ही साहब मुझे हिन्दी ब्लॉगों की 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया' टिप्पणियाँ लगती हैं।

मजे की बात यह है कि ये 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया' टिप्पणियाँ लिखने वाले प्राय: हिन्दी के हर ब्लॉग में मिल जाते हैं। ऐसा लगता है कि टिप्पणी लिखने वाला यह दृढ़ निश्चय कर कंप्यूटर खोलता है कि कल मैंने 175 टिप्पणियाँ दी थीं आज कमसेकम 200 टिप्पणियाँ तो अवश्य दूँगा।

आप पूछेंगे कि ऐसी टिप्पणियाँ पढ़ने में मुझे क्या मनोरंजन मिलता है।

मैंने उन टिप्पणीकारों के नाम नोट कर रखे हैं। मुझे लगता है कि कहीं न कहीं ये टिप्पणीकार सजग हो जाते हैं कि भैया मैंने आज 50 जगह 'बहुत खूब' लिखा है और 55 जगह 'बहुत बढ़िया'। कहीं कोई पकड़ न ले या शायद थोड़ा अपराध बोध हो कि मैंने तो ब्लॉग पढ़ा ही नहीं और बिना पढ़े ही 'बहुत बढ़िया' टीप दिया तो वे copy paste 'बहुत बढ़िया' या copy paste 'बहुत खूब' टीप मारते हैं।

ऐसा नहीं कि ऐसे टिप्पणीकार ब्लॉग पढ़ते ही नहीं। कभी कभी जल्दी में पढ़ भी लेते है। अब समझने का झंझट कौन उठाये। आज का टारगेट 200 टिप्पणियाँ जो हैं। तो साहब 'बहुत खूब' या 'बहुत बढ़िया से सेफ टिप्पणी और क्या हो सकती है।

इससे अच्छा खेल क्या हो सकता है कि आप अनुमान लगायें कि भैया इसने तो ब्लॉग पढ़ा है या केवल सरसरी निगाह से देखा है, या एकदम पढा ही नहीं है।

अलोहा।

Friday, October 23, 2009

परसनल स्पेस

तारा को लेने जा रही हो या मैं जाऊँ?

तारा अब घर नहीं आना चाहती है। पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने काल सेंटर ज्वाइन कर लिया है। कहती है जब घर ही नहीं है तो क्यों आऊँ। फिर वह हम दोनों में से किसी एक को चुनना नहीं चाहती है। मिलना है तो हमें ही जाना पड़ेगा उसके पास। वह नहीं आयेगी।

हमने तो उसके सामने कभी ऐसा नहीं दिखाया कि हम अलग हो गये हैं। उसे मालूम न हो करके इसी घर में रह कर हम एक दूसरे तो झेलते रहे हैं। उसको कैसे पता चला?

सारी दुनिया को मालूम हो गया है तो उसे क्यों नहीं मालूम होगा। फिर मत भूलो कि वह हमारी ही बेटी है।

यह तो ठीक नहीं हुआ। मेरा जीवन तो नर्क बन ही गया है, पर मैं अपनी बच्ची पर कोई आँच नहीं आने देना चाहता हूँ।

किस नर्क की बात कर रहे हो तुम। छुट्टे साँड़ की तरह तो शहर में घूम रहे हो।

सभ्य भाषा का प्रयोग करो।

मैंने सभ्य भाषा का ही प्रयोग किया था। असभ्य भाषा का प्रयोग करूँ तो तुम्हारी दुम उग आयेगी जिसे तुम अपनी टाँगों में दबा कर उछलने लगोगे।

देखो तुम्हारी ऐसी ही कटु बातों से आज हम इस मुकाम पर पहुँचे हैं।

इसी मुकाम तक तो पहुँचना चाहते थे तुम। यही तो तुम्हारी मंजिल थी न। अब क्यों अफसोस कर रहे हो! याद है इस मुकाम तक पहुँचने के लिये तुमने क्या किया था? उस कुर्सी की एक टाँग तोड़ी थी। अभी तक अपनी टूटी टाँग ले कर एक कोने से लगी है बेचारी। हमारे रिश्ते की तरह।

कुर्सी का रोना क्या रो रही हो? अपनी भूल गई तुमने भी तो किचन के सारे बरतन तोड़े थे। मैं सँभालने गया तो मेरा सिर भी तोड़ दिया था।

बीच में आओगे तो लगेगी ही। जानबूझ कर नहीं तोड़ा था। क्या कहा था तुमने? अरे माडर्न बनो... आधुनिक बनो... आजकल क्या कहते हैं उसे, परसनल स्पेस का जमाना है... वह पुराना जमाना अब नहीं रहा कि एक दूसरे में घुसे चले जाओ। अब क्या हुआ!

मैंने तो तुम्हारी भावना को शब्द दिये थे। तुमको ही चाहिए था यह परसनल स्पेस। क्या कहा था तुमने कि मैं तुमको घेरता हूँ और तुम्हारा दम घुटता है यहाँ।

अब तो मिल गया न तुमको तुम्हारा परसनल स्पेस। कितना परसनल स्पेस चाहिए तुम्हें। तुम्हारे चारों ओर तो खाली खाली है। कोई तुम तक पहुँचना भी चाहे तो यह खाली परसनल स्पेस तय करने में महीनों लग जाएँगे।

तुम्हारा परसनल स्पेस भी कम बड़ा नहीं है। मैं भी तो तुम तक पहुँचने के लिये पिछले छह महीनों से लगा हुआ हूँ।

बकवास मत करो। तुम छह महीनों तो अपना ही परसनल स्पेस पार नहीं कर पाओगे। अपनी खोह से बाहर निकलो तो मुझ तक पहुँचने की बात करना।

ठीक है। थोड़ा तुम चलो और थोड़ा मैं। हमारा मिलना जरूरी है। मैं नहीं चाहता कि मैं... हम अपनी बच्ची के सामने छोटे पड़ें।

हम नहीं मैं बोलो।

ठीक है मैं। मैं नहीं चाहता कि मैं तारा के सामने छोटा पड़ूँ। थोड़ा तुम अपने परसनल स्पेस से बाहर आओ। और थोड़ा मैं।

मेरा कोई परसनल स्पेस नहीं है। यदि है भी तो इसमें तुम आराम से समा सकते हो। तारा तो पहले से ही यहाँ है।

ठीक है तो मैं आऊँ फिर?

आ सकते हो पर जूते खोल कर बाहर ही रखना। माने तुम्हारा परसनल स्पेस।

Monday, August 31, 2009

मेरी खिड़की से

तीन साल पहले जब मैं अपने नये फ्लैट में शिफ्ट हुआ तो खिड़की से यह दृश्य देखा।



भले ही बेंगलोर को उद्यानों का शहर कहते हैं पर खिड़की से झाँकने पर ऐसे दृश्य बहुत कम ही देखने को मिलते हैं।



ऐसे मनोरम बाग को देख कर दिल बाग-बाग हो गया था। सुबह पक्षियों के कलरव के साथ उठता था। बड़े पेड़ पर बंदरों का एक परिवार रहता था। उनकी दिनचर्या देखने का घंटों तक आनंद उठाया जा सकता था। फिर गिलहरियों का खेल। कैसे पेड़ की एक फुनगी से दूसरी में कूदती थीं। यह तब की बात थी।

वे आये थे कुल्हाड़े और मोटराइज्ड आरे लेकर। एक दिन में सारे पेड़ गिरा दिये। सारे झाड़ काट डाले। उस दिन बहुत ही दुखी मन से सोने गया था। सुबह पक्षियों का कलरव नहीं था। आर्तनाद था। पता नहीं कितने घोंसले उजड़े थे। बंदरों का परिवार पता नहीं कहाँ चला गया। एक हफ्ते तक वे ट्रकों में लकड़ियाँ भर कर ले जाते रहे। उस जगह प्रकृति का निर्मम बलात्कार हुआ था। एक गिलहरी की लाश दिखाई पड़ रही थी।



आज का दृश्य देखिये। पेड़ तो आरे से काट डाले गये थे। पर दूर और गहरी फैली हुई जड़ें तो खोद खोद कर ही निकालनी पड़ रही हैं। ऐसा लगता है किसी जानवर की लाश ऊपर गिद्ध पिले हुए हैं।

Saturday, August 8, 2009

अभी अभी पहाड़ से लौटा हूँ।

अभी अभी पहाड़ से लौटा हूँ।
एक नया गॉव देखा हड़तोला। भुवाली से कार से डेढ़ घंटे की चढ़ाई है। खूब बारिश हो रही थी।





पहाड़ों पर बरसात















बरसात बंद होने के बाद निखरा सौंदर्य













जिधर देखो फलों के बाग है।












हड़तोला से पिथेरागढ़ गये। अल्‍मोड़ा के पास भांग के झाड़ मिले। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भांग के पत्‍तों की पकोडि़यॉं भांग के सकारात्‍मक गुणों के साथ बहुत ही स्‍वादिष्‍ट होती हैं।


पिथौरागढ़ से वीर्थी जलप्रपात देखते हुए हम मुन्‍स्‍यारी गये।

मुन्‍स्‍यारी से पंचचूली का दृश्‍य




शाम को जब बादल छाए हुए थे



एक घस्‍यारन



Friday, August 7, 2009

वह एक आवारा कुत्ता था।



मैं तहसील के बाहर पत्थर पर बैठा इंतजार कर रहा था। वह मंथर गति से शाही चाल चलता हुआ मेरे पास आया। अपनी पनीली आँखों से मुझे देखने लगा मानो कह रहा हो

'कुछ खिलाना-वाना है तो बोलो। नहीं तो मैं चलता हूँ।'

मुझे उसका यह एटिच्यूड भा गया। मुझे भी भूख लग ही रही थी। पास की दुकान से पूरी-भाजी के दो पत्तल लिये। एक अपने लिए और दूसरा उसके लिए। उसके सामने पत्तल परोसा। उसने पहले मेरी ओर देखा और फिर खाने पर ध्यान दिया। खाने के बाद वह अपनी राह चला और मैं अपनी राह।

दो दिन यही कार्यक्रम चला। तीसरे दिन भी वह आया। चाल मतवाली थी। मेरे पास आते-आते वह लड़खड़ाया और गिर गया। उसके जबड़े भिंच गये थे। वह अप्राकृतिक रूप से बहुत जल्दी-जल्दी साँस लेने लगा। साँस लेने में उसे कष्ट हो रहा था।
'लगता है इसको लकवा मार गया है।'

'अरे कोई इसे अस्पताल ले जाओ।'

'इसके मुँह में पानी डालो।'

किसी ने उसके मुँह के ऊपर एक गिलास से पानी डाला। वह उठ खड़ा हुआ। फिर लड़खड़ा कर गिर पड़ा। तभी तहसील के अंदर मेरा नाम पुकारा गया और मैं अंदर चला गया। लगभग एक घंटे के बाद बाहर आया तो वह उसकी साँसें बंद हो चुकी थीं। उसके मुँह के ऊपर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं।

यह एक साधारण सी घटना है। गली का कुत्ता था, मर गया। पर मैं भुला नहीं पा रहा हूँ। उसका छरहरा बदन, उसकी वह चाल, उसका उन अभेद्य पनीली आँखों से मुझे देखना। संक्षिप्त ही सही, कहीं तो कोई अपरिभाषित संपर्क सूत्र था हम दोनों के बीच।

वह एक आवारा कुता था।
आवारगी का अपना रोमांच है, अपना रोमांस है। आदमियों की बात करें तो आवारगी की पराकाष्ठा अकबर इलाहाबादी के इस शेर में निहित है।

हुए इस कदर मुहज्ज़ब, कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में, मरे तो अस्पताल जा कर।

उस कुत्ते की बात करें तो मानो वह कह रहा हो
न रहे हम कभी किसी के, न कोई हमारा।
तुम्हें ही मुबारक अब ये गली ये चौवारा।


(मुहज्ज़ब - सभ्य)

Sunday, July 12, 2009

सब कुछ ठीक ठाक है - दूसरा और अंतिम भाग

चौथे दिन चंद्रिका ने मुझे विक्टोरिया मेमोरियल बुलाया। अनिच्छित मन से, और भारी कदमो से वहाँ पहुँचा। चंद्रिका पहले ही पहुँच चुकी थी। गंभीर तो वह सदा ही रहती थी। उस समय साधारण से अधिक गंभीर लग रही थी।

'प्रताप मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ पर तुम्हें दुख होगा। इसलिये समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे कहूँ।'

'बस कह डालो।'

'तुम मेरे मित्र हो..।'

'इस भूमिका की कोई आवश्यकता नहीं है चंद्रिका। बात क्या है?'

'तुम्हें दुख होगा प्रताप।'

'बात तो बताओ।'

'उस दिन जब तुमने शादी की बात की थी तब से मैं इस बारे में गंभीरता से सोच रही हूँ। प्रताप, हम दोनों की प्रकृति एकदम भिन्न है। यह शादी करके हम भूल ही करेंगे। क्या.. क्या हम दोनों मित्र ही नहीं रह सकते'

मैं भी तो यही चाहता था। चलो यह तो अच्छा हुआ कि चंद्रिका भी नहीं चाहती कि हम दोनों की शादी हो। मुझे सोच में पड़ा देख कर चंद्रिका ने कहा था, 'मुझे मालूम है कि तुम्हें दुख होगा... पर...'

'नहीं नहीं चंद्रिका तुम नहीं चाहती तो यह शादी नहीं होगी।' मैंने कहा था। मैंने मौके का एक फिल्मी डायलॉग भी जड़ दिया था, ' तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है।'

चंद्रिका इस भ्रम में थी कि उसकी ना से मुझे बहुत दुख पहुँचा है। मैंने उसके इस भ्रम को बने रहने दिया था। हाँ, उसकी ना ने मेरे अहम् को ठेस अवश्य पहुँचाई थी। जो हो, हम दोनों अनचाहे बंधन में बँधने से बच गये थे।
घर में शादी की बात उठी तो मैंने चंद्रिका के साथ अपनी इस संबंध में हुई बातों का अक्षरश: वर्णन कर दिया। दानों घरों में उठी आँधी का सामना चंद्रिका को अकेले करने दिया। बाद में पिताजी मुझे दोषी ठहराने लगे थे। पर उस समय तो आँधी निकल गई थी।


इस घटना को चार साल हो गये हैं। चंद्रिका और मेरा मिलना वैसे ही कम हो गया था। इस घटना के बाद तो और भी कम हो गया था। बस तीन या चार बार ही हमलोग मिल पाये थे वह भी बहुत औपचारिक रूप से। अब तक न चंद्रिका की शादी हुई थी न मेरी। मेरी शादी इसलिये नहीं हुई थी कि एक तो मेरा ध्यान और कई विषयों में बँट गया था और दूसरे मेरे दायरे में जितनी लड़कियाँ आईं किसी में कुछ ऐसा नहीं देखा कि शादी के लिए हायतौबा मचाता। चंद्रिका की शादी क्यों नहीं हुई मुझे नहीं मालूम। उसकी भी शायद मेरी जैसी स्थिति हो।




चंदनी में पहले जब भी आया बस दो दिनों से अधिक नहीं रुका था। इस बार माँ और पिताजी की शिकायत दूर करने के लिये मैं लंबी छुट्टी ले कर घर आया था। तीसरे दिन ही मुझे लगा कि चंदनी में समय बिताना बहुत ही टेढ़ी खीर हे। यहाँ आने से पहले समय कैसे बिताया जाता है इसका बाकायदा प्रशिक्षण ले लेना चाहिये। पहला दिन तो मातापिता से मिलने में बिताया। दूसरे दिन चंद्रिका के पिता कृष्णकुमार जी आदि से मिला। तीसरे दिन बस सामने सड़क और पीछे रेललाइन, इन दोनों को छोड़ कर मनोरंजन का और साधन नजर नहीं आया। शाम को कृष्णकुमार जी ने बताया कि चंद्रिका भी चंदनी आने वाली है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उस घटना के बाद मुझे चंद्रिका का सामना करने में थोड़ी झिझक होती है। हालाँकि शादी के लिये मना चंद्रिका ने किया था पर मुझमें एक ऐसी अपराध भावना आ गई है जो मुझे सहज नहीं होने देती है। तो आप पूछ सकते हें कि चंद्रिका के आने का समाचार सुन कर मुझे प्रसन्नता क्यों हुई। आप चंदनी में तीन चार दिन रहिये तो आपको उत्तर स्वयं मिल जायेगा। इस बोरियत के सामने कोई भी अपराध भावना नहीं ठहर सकती। फिर चंद्रिका के साथ वर्तमान जैसा भी हो बचपन तो उसी के साथ कटा था।

उसको लेने बस अड्डे मैं ही गया था। मुझे देख कर उसने आश्चर्य प्रकट किया। मुस्कराई। पर प्रसन्न हुई या नहीं मैं नहीं कह पाया। रास्ते में केवल औपचारिक बातें ही हुईं। उसके घर की, मेरे घर की, बस। अगले दिन सुबह सुबह ही मैं उसके घर पहुँच गया। वह कोई पत्रिका पढ़ रही थी। मुझे देख कर उसने पत्रिका रख दी।

'अकेली हो ?' मैंने पूछा। घर में कोई नहीं दिख रहा था।

'हाँ माँ पता नहीं कहाँ गई है। पिताजी हाट गये हैं।' उसने कहा।

'क्या करने का इरादा है आज तुम्हारा।'

'कुछ विशेष नहीं।'

'बड़ी बोर जगह है यह।'

'यहाँ शहर का वातावरण खोजना बेवकूफी है। मैं यहाँ अपने लिखने पढ़ने का पूरा सामान ले कर आई हूँ।

हर बात का उसके पास काट था, हमेशा की तरह। मजे की बात यह कि वह बात बात में मुझे बेवकुफ भी कह गई। खैर मैंने उसकी बात का बुरा नहीं माना। इस तरह की चोटें तो हमदोनों के बीच चलती रहती थीं। और मैंने चाहा भी यही है कि हमदोनों के बीच का समीकरण न बदले।

'मुझे नहीं मालूम था कि तुम यहाँ मिलोगे नहीं तो मैं तुम्हारे लिये भी कुछ पुस्तकें उठा लाती।' उसने कहा।

'अच्छा किया नहीं लाई। तुम्हारी दी हुई पुस्तकें मेरे पास बहुत हैं। उन्हें पढ़ने के लिये रुचि उत्पन्न करना मेरे लिये कठिन कार्य है।'

'मुझे तुम्हारी रुचि मालूम है। मैं सूरज के उपन्यासों की बात कर रही थी।' उसके होंठों में हल्की स्मित रेखा खिंची हुई थी। मेरी और उसकी आँखें चार हुईं तो दोनों ठठा कर हँस पड़े।

वह हँसी हम दोनों के बीच सहजता ले आई। थोड़ी देर और बैठ कर मैं वहाँ से चला आया। शाम हुई तो मैंने छत पर एक बड़ा सा गद्दा और गावतकिये लगा दिये। वहीं गद्दे में अधलेटा हो कर मैं आसपास के दृश्य का आनंद उठाने लगा। चांदनी छिटक आई। दूर घरों में बत्तियाँ टिमटिमाने लगीं। माँ ओर पिताजी भी वहीं चले आये और हमलोग पारिवारिक बातचीत में व्यस्त हो गये। माँ ने मेरी शादी का विषय उठाना चाहा पर मैंने उठाने नहीं दिया। नीचे आहट हुई। माँ देखने के लिये नीचे उतरी और वहीं से आवाज दी कि चंद्रिका आई है। मैंने कहा उसे ऊपर ही भेज दो। तुमलोग बैठो कह कर पिताजी भी नीचे चले गये। मैं चंद्रिका के बारे में सोचने लगा। बड़ी पढ़ाकू बनती है, कितना पढ़ेगी आखिर।


चंद्रिका छत पर आई। सफेद सलवार कमीज में थी, डिटर्जेंट टिकिया का विज्ञापन बनी हुई। भली लग रही थी। मैंने बैठने के लिये कहा। वह पास ही एक गावतकिया लगा कर घुटने मोड़ कर बैठ गई। बहुत देर तक न वह बोली और न मैं बोला। जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो मैंने उसकी ओर देखा। वह मुझे ही निहार रही थी।

जगह का नाम चंदनी हो, स्थान एकांत छत हो, चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हुई हो, लड़की का नाम भी चंद्रिका हो और वह चाँदनी से उजले कपड़े पहने हुए हो, ऊपर से बचपन की मित्र भी हो तो किसी घटन-अघटन की आशंका करनी चाहिये।
पहले हम दोनों की टकटकी बँधी और फिर पलक झपकते ही हम एक दूसरे की बाँहों में समा गये। आलिंगन के आवेश में साँसें अवरुद्ध होने लगीं। भावावेश के बावजूद मैंने पाया कि मेरा चेतन मस्तिष्क काम कर रहा है और इस प्रश्न का हल ढ़ूँढ़ रहा है कि जब हम दोनों के बीच प्रणय नहीं है तो ऐसा क्या अव्यक्त रह गया है जिसकी अभिव्यक्ति इस समय इस आलिंगनपास से हो रही है। आवेश की अवधि समाप्त हुई, चंद्रिका तीव्रता से उठ कर छत की मुँडेर के पास चली गई। इसी समय अँधेरे को चीरती हुई रेल गाड़ी आई और एक झाँंकी दिखला कर चली गई। फिर चुप्पी। मैंने पुकारा 'चंद्रिका', पर वह बिना उत्तर दिये वहाँ से चली गई। मैं उठ कर मुँडेर के पास गया ओर अपने घर की ओर जाते हुये उसे देखता रहा।

मैं सोचने लगा कि यह मैंने क्या कर डाला। चंद्रिका को भावना में बहने का अधिकार है। एक तो वह लड़की है, दूसरे वह यह धारणा पाले हुई है कि शादी के लिये मना कर उसने मुझे बहुत दुख पहुँचाया है, तीसरे अकेलेपन से शायद वह बहुत घबड़ा गई हो और चौथे शायद बचपन का प्यार उमड़ आया हो। उसके लिये इनमें से कोई भी एक कारण भावना में बहने के लिये पर्याप्त है। पर मुझे तो होश में रहना चाहिये था। क्या पता यह क्षणिक आवेश मुझे महँगा पड़े। अब यदि चंद्रिका शादी का प्रस्ताव रखे तो मैं कभी मना नहीं कर पाऊँगा।
देर रात तक मैं सो नहीं पाया। सुबह सुबह आँख लगी तो सपने में क्या देखता हूँ कि चंद्रिका एक बेंत गोद में रखे आराम कुर्सी में डोल रही है और मुझसे मनोविज्ञान की एक मोटी पुस्तक के अध्याय तीन से प्रश्न पूछ रही है। उत्तर सही न होने पर दो बेंत मार पड़ेगी।

घबड़ा कर उठ बैठा। अपने सपने पर मुझे हँसी आ गई।
आज मेरा मन नहीं किया कि मैं चंद्रिका का सामना करूँ। इसलिये शारदा नदी में मछली पकड़ने का प्रोग्राम बनाया। इस उद्देश्य से मैं पिताजी का फिशिंग राड निकाल कर ठीक कर रहा था कि वहीं चंद्रिका आ पहुँची। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में तैरते लाल डोरों से पता चला कि वह रात में ठीक से सोई नहीं। आते ही उसने कहा, 'प्रताप चलो कहीं बाहर चलते हैं।'

'मैं शारदा में मछली पकड़ने जा रहा हूँ, वहाँ चलना है ?'
चंद्रिका ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
नदी किनारे उचित जगह देख कर मैंने दरी बिछाई। चंद्रिका को बैठने के लिये कहा। मैंने काँटे में चारा फँसाया। लाइन पानी में डाली और रॉड लेकर चंद्रिका के पास बैठ गया। मैं क्या देखता हूँ कि चंद्रिका अनमनी सी बैठी है जैसे उसके मन में कोई बोझ हो। उसके माथे में पसीने की बूँदें हैं। पैदल चलने के श्रम से साँस थोड़ी तेज है। उसको उस हालत में देख कर मैंने निर्णय लिया कि चाहे कुछ हो जाय मैं इस लड़की को कभी दुख नहीं पहुँचाऊँगा। मेरे ऊपर इतना हक तो उसका बनता ही है।

'प्रताप, कल के अपने व्यवहार के लिये मैं शर्मिन्दा हूँ।' उसने नदी की ओर देखते हुये कहा।

'गलती मेरी भी है।' मैंने कहा।

इसके बाद हमदोनों बहुत देर तक चुप रहे। वह अपने ख्यालों में और मैं अपने। एक छोटी मछली हाथ आई। मैंने चारा फँसा कर लाइन को फिर पानी में डाल दिया।

'प्रताप, इतना कष्ट करके मछली मिली भी तो इतनी छोटी। हाट से क्यों नहीं खरीद लेते। पिता जी कह रहे थे कि मछलियाँ बहुत सस्ती हैं यहाँ।'

'तुम बोर हो रही हो ? '

' नहीं तो।'

'बाजार से तो हर कोई खरीद लेता हैे पर अपनी पकड़ी हुई मछली का स्वाद ही अलग होता है। कहने का अर्थ यह कि जो चीज बाजार में आसानी से मिल जाती हो उसकी कद्र नहीं होती। फिर एकांत चाहिये हो या अपने में ही डूबे रहने की इच्छा हो तो इससे अच्छी दूसरी जगह नहीं हो सकती।'

'शायद तुम ठीक कह रही हो।'

'तुम्हें तो मालूम होना चाहिये। तुम मनोविज्ञान आदि का बहुत अध्ययन करती हो।'

उत्तर में चंद्रिका ने कुछ नहीं कहा। केवल पानी की ओर देखती रही।

'कल से तुम में कुछ परिवर्तन देख रहा हूँ।'

'कैसा परिवर्तन ? कल की बात कर रहे हो?'

'नहीं।'

'फिर ? '

'तुम्हें मालूम है मैं क्या कह रहा हूँ।'

'शायद। तुम ठीक ही कह रहे हो। कल मेरे अंदर का छुपा हुआ कुछ बाहर आ गया था। हर समय तो तन के नहीं खड़ा रहा जा सकता है न प्रताप।'

'हाँ यही बात है। मुझे कभी अच्छी नहीं लगी तुम्हारी यह बात। मैं तुम्हारा बालसखा हूँ। मेरे सामने तनने की तुमको क्या आवश्यकता आन पड़ी! अरे मेरे सामने ढीली नहीं होओगी तो किसके सामने होओगी ? '

फिर वही चुप्पी।

'मुझसे शादी करोगी चंद्रिका?' अपने इस प्रश्न पर मैं स्वयं ही चौंक पड़ा। पता नहीं मन के किस कोने में दबी हुई थी यह भावना जो अभी चंद्रिका के सामने शब्दों में परिणत हुई।

'हाँ प्रताप।' चंद्रिका ने कहा। वह मेरे पास खिसक आई और मेरे कंधे में सिर रख दिया।

उसके उत्तर से अधिक आश्चर्य नहीं हुआ मुझे। प्रश्न पूछने के बाद मैं जैसी आशा कर रहा था वैसा ही हुआ। मैंने चंद्रिका को अपनी बाईं बॉह के घेरे में ले लिया।

हम मित्र से पति-पत्नी बने। चंद्रिका अब भी अध्ययनशील है। अब भी मोटी मोटी किताबें पढ़ती है और मेरे अध्ययनशील न होने पर मुझे टोकती रहती है। पर सब कुछ ठीक ठाक है।

समाप्‍त


लेखक उवाच

एक जमाना था जब हम जवाँ थे, एक जमाना यह है जब कहना पड़ रहा है कि हम अब भी जवाँ हैं। फर्क इतना है कि तब दिल से सोचते थे और अब थोड़ा बहुत दिमाग से भी सोच लेते हैं।
प्यार तब भी अपरिभाषित था और आज भी अपरिभाषित ही है। इसमें दिमागी सोच कम ही काम करती है।

ग़ालिब कह गये हैं -
'यह आग का दरिया है..'

सामरसेट माम कह गये हैं
'प्यार के मामले में तटस्थ मत रहो..'

प्यार में दो पहलुओं में मैंने दो कहानियाँ लिखी हैं। दोनों कहानियाँ काल्पनिक हैं पर कपोल काल्पनिक नहीं। एक तो अभी आपने पढ़ी। दूसरी कुछ दिनों बाद। टंकित करने का झमेला है।

मथुरा कलौनी

Thursday, July 9, 2009

सब कुछ ठीक ठाक है

अवकाश प्राप्त करने के बाद पिताजी गाँव चंदनी में बस गये हैं। बीस बीघा जमीन है। जमीन के बीचोबीच आरामदेह और सुरुचिपूर्ण मकान बनाया है। दाहिने और बाएँ पड़ोस में उनके मित्र बसे हुए हैं। यारदोस्त अच्छे हें। पेन्शन है। बैंक में अच्छा बैलेन्स है। मतलब पिताजी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हाँ, एक दुख उनको अवश्य है। उन्हीं के शब्दों में उनका इकलौता लड़का नालायक निकला। यह बात और हैे कि मैं कितना ही लायक क्यों न बनूँ उनकी दृष्टि में सदा नालायक ही रहूँगा। मुझे नालायक सिद्ध करने के लिए उनके पास सैंकड़ों उदाहरण हैं। पर एक बात वह विशेष जोर दे कर कहते हैं, वह यह कि चंद्रिका जैसी रूपवान और बुद्धिवान लड़की से मैंने शादी नहीं की।

रूप और बुद्धि के साथ चंद्रिका में एक और गुण यह है कि वह पिता जी के अभिन्न मित्र कृष्णकुमार जी की सुपुत्री है। चंदनी में दाहिने पड़ोस में कृष्णकुमार जी ही रहते हैं। कलकत्ते में भी हमारे दोनों परिवार साथ ही रहते थे। दोनों परिवारों के बड़े चाहते थे कि चंद्रिका और मेरी शादी हो जाय। छुटपन में तो यह एक दूसरे को चिढ़ाने का विषय था। बड़े हुए तो वह अपने रास्ते लगी और मैं अपने। वह अपने पहले से ही बड़े मस्तिष्क में अधिक से अधिक ज्ञान भरने की चिंता में लगी और मैं रोजी रोटी की चिंता में। इस दौर हमारा मिलना भी बहुत कम हो गया था।

मुझे अच्छी नौकरी मिल गई और जीवन स्थिर हुआ तो घरवालों ने तिकतिक लगानी शुरू की कि बच्चू अब शादी कर लो, चंद्रिका तुम्हारे लिए बैठी नहीं रहेगी, इत्यादि। तब मैंने सोचा हर्ज ही क्या है। विचार करने पर यह विचार मुझे पसंद आने लगा कि मेरी शादी अब हो ही जानी चाहिये। शुभकार्य आरंभ करने के लिए मैंने चंद्रिका को फोन किया। चूँकि मामला व्यक्तिगत था इसलिए घर से दूर विक्टोरिया मेमोरियल में मिलने का प्लान बनाया।
ठीक समय पर चंद्रिका आई। उसे देख कर मुझे लगा कि इस बीच हम दोनों कितने कम मिले थे। सबसे पहली चीज मैंने लक्ष्य की वह चंद्रिका का चश्मा था।

'तुमने चश्मा कब से लगाना शुरू कर दिया?'

'बहुत दिन हो गए।'

'बताया भी नहीं!'

'इसमें बताने लायक कौन सी बात है!'

यह सचमुच बताने योग्य कोई बात नहीं थी। मैंने चंद्रिका को बुला तो लिया था पर असल विषय को छेड़ने में मुझे घबराहट हो रहीं थी। हालाँकि पहले कोई भी ऐसी बात नहीं होती थी जिस पर मैं चंद्रिका से सहजता से बात नहीं कर सकता था। युवावस्था ने विशेष कर चंद्रिका की युवावस्था ने हमारे बीच की सहजता समाप्त कर दी थी। फिर पता नहीं क्यों वह चश्मा बहुत आड़े आ रहा था।

'तुम्हारी परीक्षा कब है?' मैंने पूछा था।

'कौन सी परीक्षा?'

'एम. ए. की।'

'कहॉ रहते हो? एम.ए. तो मैंने पिछले साल ही पास कर लिया था।'

'पर तुम्हारे पिता जी तो कह रहे थे कि तुम अध्ययन में बहुत व्यस्त रहती हो।'

'हाँ आजकल मैं जीवविज्ञान पर व्यक्तिगत रूप से अध्ययन कर रही हूँ।'

'एम.ए. में तो तुम्हारा विषय मनोविज्ञान था।'

'हाँ। '

'तो अब जीवविज्ञान क्यों?'

'जीव विज्ञान क्यों नहीं?' उसने अपने चश्मों के पीछे से विचित्र भाव से मुझे देखा था। मानो वह अपने जीवविज्ञान के ज्ञान का प्रयोग मुझ पर कर रही हो।

'तुम क्या कर रहे हो आजकल?' अब उसके पूछने की बारी थी।

'नौकरी कर रहा हूँ। मैंने कुछ दिन पहले तुमको बताया तो था।'

'हाँ, मुझे मालूम है। मेरे कहने का मतलब था नौकरी के अलावा क्या कर रहे हो?'

'नौकरी के अलावा!'

'मेरा मतलब अध्ययन आदि था।'

'ओ अध्ययन! उससे तो मैंने छुटकारा पा लिया है।'

मैंने उसे अपनी ओर फिर उसी विचित्र भाव से देखते हुए पाया था। तब मुझे याद आया कि अध्ययन पर उसके विचार क्या हैं। 'खाली समय में कुछ पढ़ लेता हूँ।' मैंने बड़बड़ा कर कहा था।

'आजकल क्या पढ़ रहे हो?'

'आजकल सूरज का एक उपन्यास...'

'सूरज?'

'मेरा मतलब था सूर्यकांत त्रिपाठी निराला।' मैंने जल्दी से कहा था। इससे पहले कि अध्ययन पर हमारी बहस छिड़े मैंने असल मुद्दे में बात कर लेना उचित समझा था।

'चंद्रिका।'

'बोलो।'

'मैंने तुम्हें एक विशेष बात करने के लिए बुलाया है।'

'मुझे मालूम है।'

'मालूम है! कैसे मालूम है?'

'सीधी सी बात है प्रताप। तुमने मुझे घर न बुला कर इतनी दूर यहाँ बुलाया है। और आजकल हम दोनों के घरों में में जो बात हो रही है उसे छोड़ कर और क्या बात हो सकती है?'

'चलो तुमने बात आसान कर दी। तो क्या कहती हो, हम अपने माँ बाप को प्रसन्न कर दें?'

मेरी बात सुन कर वह खिलखिला कर हँसने लगी थी। मुझे बुरा लगा था। 'इसमें हँसने की कौन की बात है?' मैंने पूछा था।

'हँसने की ही तो बात है। ऐसा कह कर शायद ही किसी ने आज तक किसी लड़की का हाथ माँगा होगा।'

'तो क्या हुआ, थोड़ा अनूठापन ही सही।'

'प्रताप क्या तुम अपने माँबाप को प्रसन्न करने के लिए शादी कर रहे हो?' अब वह थोेड़ी संजीदा हो गई थी।

'मैं भी प्रसन्न होऊँगा। अब यह भी बताना पड़ेगा?'

इसके बाद वह थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोली थी।

'क्या सोच रही हो?' मैंने पूछा था।

'सोच रही थी कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा।'

'कैसा रहेगा माने? अच्छा रहेगा।'

'तुम अध्ययन में विश्वास नहीं रखते हो।' उसके लहजे में शिकायत थी।

'तो क्या हुआ। आवश्यकता पड़ी तो थोड़ा बहुत अध्ययन मैं भी कर लिया करूँगा।'

'तुम मेरी जीवनशैली में बाधा तो नहीं डालोगे?'

'मेरा अपमान मत करो, चंद्रिका। तुम मुझे बचपन से जानती हो। उल्टा सीधा सोचना बंद करो। हमारे बड़े यही चाहते है कि हम दोनों शादी कर लें। अब मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?'

'हाँ प्रताप।' उसने कहा था और मेरा हाथ थाम लिया था।


मुझे प्रसन्न होना चाहिए था कि एक सुंदर और सुशिक्षित कन्या से मेरी शादी तय हो गई है। पर नहीं। उस दिन घर लौटा तो मन में सब कुछ उलझा उलझा था। पहले इस संबंध में गहराई से सोचा नहीं था और अब कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। ऊँट किसी करवट सीधा नहीं बैठ रहा था। लगता था कोई बहुत बड़ी मूर्खता कर डाली थी मैंने। मनोविज्ञान में एम.ए.। जीवविज्ञान में व्यक्तिगत अध्ययन। जब देखो कोई मोटी किताब पढ़ती रहती थी। चंद्रिका जैसी पुस्तकमुखी के साथ जीवन बिताने की बात सोच कैसे ली मैंने। वह तो मुझे संदर्भ दे कर बतायेगी कि प्यार कैसे करना चाहिए। दो दिनों में ही मेरी अवस्था हवा निकले टायर सी हो गई। ....


(कहानी का दूसरा और अंतिम भाग दिनांक 12 जुलाई को)

Monday, July 6, 2009

बहुत मनुहार के बाद भी...



कहानी रुकी नहीं

हम अनदेखा करते गये, होनी थी कि टली नहीं
मोड़ ले कर आगे बढ़ गई, कहानी रुकी नहीं

विकट पगडंडियाँ थी और घूप थी तेज
हम प्यासे रह गये पनिहारिन थी कि रुकी नहीं

बहती रही पुरवाई, और भीगती गई पलकें
साश्रु नयनों से पर एक भी आँसू टपका नहीं

हवाओं ने रुख फेरा और दिन जल्दी ढला नहीं,
रोशनी करते रहे रात भर सुबह का कोई पता नहीं

अब कौन जाने क्या है क्षितिज के उस पार
वहाँं जाने की राह कभी हमें मिली नहीं

करवटो की कहानी सिलवटों मे उलझती गई
मन का हिंडोला था कि कभी रुका नहीं

जिह्वा में अंकुश था होंठ थरथरा कर रह गये
बदलते गये अर्थ मौन के, शब्दों का पता नहीं

कुछ भी तो नहीं होता सरल यदि हम पी लेते गरल
जिन्दगी के घूँट पीते रहे, पर जिन्दगानी रुकी नहीं

बहुत मनुहार के बाद भी पाहुन रुका नहीं
प्यार होते होते रह गया पर हुआ नहीं

मथुरा कलौनी

Friday, June 26, 2009

कभी आ कर तो देखो



रस्में पुरानी ही सही, पांव की बेड़ियां ही सही
हो कर दूसरों के, रस्में निभाकर तो देखो

तुम्हारी थी दुनियाँ तुम्हारी ही है दुनियाँ
हमें भी कभी दुनियाँदारी सिखा कर तो देखो

खुली हवा में सांस ले ली, मेड़ों मे अठखेलियां कर ली
अब बंद है आशियाना, इसमें समा कर तो देखो

आदतें वही औ' लीक पर चल रही है जिन्दगी
कभी कदम से कदम मिला कर तो देखो

न चांद हमारा, न चांदनी हमारी
अनजान डगर पे चलना सिखा कर तो देखो

नैना लगा कर हारे, सपने संजोए बैठे हैं
दौड़े आयेंगे हम, बुला कर तो देखो

मथुरा कलौनी

Saturday, June 20, 2009

बेंगलोर में ख़राशें का सफल मंचन



हमारा पिछला नाटक कब तक रहें कुँवारे हँसी ठहाकों से भरपूर था। अगले मंचन के लिये एक कॉमेडी की तलाश थी। हाथ लग गया गुलज़ार का लिखा नाटक ख़राशें। मैं साधारणतया उतना भावुक व्यक्ति नहीं हूँ। पर नाटक पढ़ा तो मैं तो हिल गया। सोद्देश्य मंचनीय नाटक कम ही मिलते हैं। ख़राशें में तो एक-एक शब्द 'हार्डहिटिंग' है। कहना न होगा कि अगले मंचन के लिये नाटक की खोज 'ख़राशें' पर समाप्त हो गई।

ख़राशें एक ऐसा नाटक है जिसमें आप पात्र में परकाया प्रवेश नहीं कर पाते हो या गुलज़ार का दर्द नहीं समझ पाते हो तो आप पात्र के साथ न्याय नहीं कर पाते हो।


नाटक की परिकल्पना श्री सलीम आरिफ़ की है। गुलज़ार की कविताओं और कहानियों का 'कोलाज़' बहुत ही संगठित है। थोड़ी भी ढील की गुंजाइश नहीं है। सलीम आरिफ़ ने अपने मंचन में सात पात्र रखे थे। हमने रिहर्सल आरंभ किया 10 पात्रों से। पारिवारिक और काम के पूर्वाग्रह के कारण दो पात्र कुछ निकल गये। आठ पात्रों से नाटक आगे बढाया। जो पात्र ख़ौफ़ कहानी को अंजाम दे रहा था वह अभिनेता ओ अच्छा था पर पात्र को नहीं जी पा रहा था। उसको एक बड़ी ही असहज विदाई देनी पड़ी। ख़ौफ़ का रोल उस पात्र के पल्ले पड़ा जो पहले ही खुदा हाफ़िज़ वाला लंबा रोल कर रहा था। वह ख़ौफ़ करने को कतई तैयार नहीं था। थोेड़ी ना नुकुर के बाद वह तैयार हो ही गया। 11 पन्नों का लंबा एकल संवाद था। वह तो पात्र में डूब ही गया। नाटक में चार कहानियाँ हैं और कहानियों के पहले कहानी को परिभाषित करती कविताएँ हैं। नाटक के पात्रों चारों कहानियों ने दर्शकों को दहला दिया। कविताओं ने कइयों की आँखें आर्द्र कर दी थीं।

नाटक के तीन प्रदर्शन हुए। तीनों हाउसफुल रहे। कई लोगों को निराश वापस जाना पड़ा।

यों तो हिन्दी नाटकों की अंग्रेजी पत्रों में बहुत कम समीक्षाएँ आती है पर कलायन संस्था बेंगलोर में बीस वर्षों से हिंदी नाटकों का मंचन कर रही है। समीक्षाएँ भी आती रहती हैं। ख़राशें के लिये हम सराहना मिली है। (यहाँ पढ़ें) सब मिला के ख़राशें का मंचन बहुत ही संतोषजनक रहा।

Friday, May 1, 2009

ख़राशें



पिछले नाटक में बहुत हँस लिये अब हँसी रोक कर एक गंभीर विषय पर कुछ देर सोच लें। गुलज़ार के शब्दों में

'ज़रा सा आओ न, बैठो वतन की बात करें।'

यों तो वतन की बात टाइमपास करने के लिये की जाती है। बैठकों में ज्ञान प्रदर्शन के लिये की गई बौद्धिक बकवास। पर हम वतन की बात को मंच पर ले आये हैं क्यों कि गुलज़ार कहते हैं

उम्मीदें डूब गई जो निगल-निगल के भँवर-
उम्मीदें हाँप रही हैं जो बादबानों में
उम्मीदो-शौक़ के क़त्लो-ग़बन की बात करें-
वतन की बात करें?

हम सांप्रदायिक हिंसा के उस घिनौने दौर से वे गुज़रे हैं जब फ़िरक़ावाराना वहशत ने इंसानियत के जिस्म में ख़राशें पैदा कीं थी। पर समय के गुज़रने के साथ कुछ बदला नहीं। पुराने ज़ख़्म भरने भी नहीं पाते कि फिर दंगे और फिर ख़राशें।

इस दर्दनाक क़िस्से को गुलज़ार ने बड़ी बेबाकी से हमारे सामने रखा है- ख़राशें में।

गुलज़ार की इन कविताओं और कहानियों में विषम परिस्थितियों में भी इंसानियत का चेहरा चमक कर सामने आया है। कवि हमसे कोंच कोंच कर पूछता है यदि आप ऐसी विकट परिस्थिति में फँसें तो आपकी सोच पर मज़हब का पर्दा होगा या इंसानियत की समझ।

मंचन जून 5 और 6 को है। यदि आप उस समय बेंगलोर में हैं तो अवश्य आयें।

Venue

Alliance Francaise de Bangalore
Millers Tank Bund Road,
Vasanth Nagar

Date and Time
Friday 5th June 2009 at 7:45 PM
Saturday 6th June at 4 PM and 7PM

Ticket Rs 150

Available at
Super Market, 5th Avenue, Brigade Road
New Arya Bhavan Sweets, all outlets
also available online
http://www.buzzintown.com/

Contact
9341220780 / 9845804430
editor@kalayan.org


नाट्य संस्था कलायन
निर्देशन मथुरा कलौनी
लेखक गुलज़ार
परिकल्पना सलीम आरिफ

मंच पर
सुदर्शन राजगोपाल
दीपक अजमानी
सनिल यती
योगी वर्मा
परमजीत
चिन्मय मुखी
रवि यादव


फातिमा फारिया

Thursday, April 16, 2009

बेतुकी तुकबंदी और मंच की कैद

कहानी व्यंग्य लेख नाटक कोई भी विधा हो, सामने कोरा कागज हो और हाथ में लेखनी हो तो कुछ न कुछ बन ही जाता है। उससे भी बढ़िया सामने कंप्यूटर हो तो क्या बात है। दस बार लिखो, दस बार डिलीट करो, कोई सबूत नहीं रहता कि आपने एक पेज लिखने में कितनी बार काटा छाँटा या कितना समय बरबाद किया। आत्मविश्वास के लिये बहुत आवश्यक है कि अपना लिखा हुआ अपने ही द्वारा कटा न मिले। और फिर जब लोग आपको लेखक समझते हैं तो हमारा भी धर्म बनता है कि उनकी यह धारणा बनी रहे कि हम कलम घिस्सू लेखक नहीं हैं।

पर कविता के मामले में हम मार खा जाते हैं। कविता रचने की सोचते ही नानी मरती है। चार पंक्तियों की तुकबंदी लिखने में चार हफ्ते लग जाते हैं। और जो बनता है वह इतना बेतुका ही होता है कि लगाये न लगे बनाये न बने।

पर क्या करें! लोगों की धारणा है कि आप लेखक हैं तो कविता अवश्य लिखते होंगे। उनके इस विश्वास को ठेस न पहुँचे, हम कविता रचने को वाध्य हैं। विश्वास कीजिये हमारी प्रत्येक कविता के पीछे महीनों की मेहनत और परेशानी है। जब कविता तैयार हो जाती है तो लगता है, गुलज़ार जी के शब्दों में , 'कहीं तवाज़न बिगड़ गया है तो कहीं सीवन उधड़ गई है'। टिप्पणियाँ भी मिलती हैं - 'कलौनी जी, भाव बहुत अच्छे हैं, यदि आप स्केल पर ध्यान दें तो बहुत अच्छा हो'। भैया हम तो पहले से ही कबूल किये बैठे हैं कि हम कोई कवि-ववि नहीं हैं। काहे का स्केल और काहे का मीटर! आपको हमारे पद्य में गद्य नजर आता है तो अच्छा है न! हम हैं तो गद्य लेखक ही। जब हम पहले ही हथियार डाले बैठे हैं तो आप काहे को घाव में नमक मल रहे हैं।

शहर की काव्य गोष्ठियों में भी जाना ही पड़ता है। स्थिति से बचने की हमारी रणनीति रही है, देर से जाओ और बहाना बना कर जल्दी निकल आओ। सिर पर बिजली गिरी जब हमने पाया कि हमारे दुश्मनों ने साजिश रच कर हमें साहित्यिक संस्था का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया है। और यह साहित्यिक संस्था हार्डकोर कवियों की संस्था है। जब भी काव्यगोष्ठी होती है वे हमें बुलाते हैं और मंच पर बिठा देते हैं। मंच का कैदी, अब न देर से आ सकता है और न जल्दी खिसक सकता है। ऊपर से बेसुरे कवियों की बेतुकी तुकबंदी। यातना ही यातना। :(
कितने ही उपाय किये, कितने जतन किये कि कविता से हम कितना ही दूर क्यों न भागें, कविता हमारा पीछा नहीं छोड़ती। कभी कभी सोचते हैं कविता हाडमांस वाली कविता क्यों न हुई!

Sunday, March 8, 2009

होली

होली

कहीं पिचकारी की मार, कहीं रंगों की बौछार है
कहीं उड रहा अबीर, तो कहीं गुलाल है

भीगी चोली है, भीगा है चोला भी
कुछ रंग यहॉं हैं, कुछ रंग वहॉं भी हैं

कुछ रंग चरणों में अर्पित, कुछ माथे पर शोभित हैं
कौन अपना कौन पराया है, रंगों ने भेद मिटाया है

रंग है भंग है, पर नहीं रंग में भंग है
जोश है उमंग है, रवानी है तरंग है

रंगों की भाषा है रंगों की ही बोली है
कोई किसी का हो लिया तो कोई हो ली है

कितनी ही गहरी नहीं लगती गाली है
देखो किसी ने मन की गांठ खोली है

भूलो गिले शिकवे, छेड अपनों से ही होती है
होली के रंग में रंग जाओ, बुरा न मानो होली है

मथुरा कलौनी

Friday, February 6, 2009

गंदगी उलीचने के बहाने

आजकल भारतीय संस्‍कृति को लेकर लोग बहुत परेशान हैं। मैं भी परेशान हूँ। आजकल 'पब कल्‍चर' की बात चल रही है। मुझे तो ये शब्‍द ही समझ में नहीं आते हैं। पब में जाना पब कल्‍चर कहलाता है तो जो रेस्‍तरॉ में जाना क्‍या कहलायेगा। सिनेमा कल्‍चर कभी सुनने में नहीं आया। भारतीय संस्‍कृति दस हजार वर्षों से भी अधिक पुरानी है। तब न सिनेमा थे न रेस्‍तरॉ। आज भारतीय संस्‍कृति को इनके दुस्‍प्रभाव से बचाने के लिये कोई सेना क्‍यों नहीं है।

यदि हम अपने को वाह्य प्रभाव से बचा कर कूपमंडूक बन जायें तो बसुधैवकुटुम्‍बकम् का राग हम कैसे आलाप सकते हैं!

10000 साल पुरानी संस्‍कृति की रक्षा करने के लिये क्‍या हम उस युग के वल्‍कल वस्‍त्र धारण कर लें।

हमारी आदि नारियॉं सोमरस का पान करती थीं। यज्ञ में भाग लेती थीं। हमारे वेदों की कई त्रऋचायें उन्‍हीं ने रची थीं। यदि वे हमारी संस्‍कृति का अंग हैं तो आज कुछ लड़कियों के पब में जाने से भारतीय संस्‍कृति कैसे डांवाडोल होने लगी!

कई सेनायें खड़ी हो गई हैं हमारी संस्‍कृति को बचाने के लिये। पर संकट किससे है!!

ऐसे ही कई सवालों से परेशान हूँ। इस परेशानी में यह कविता बन पड़ी है...



कब तक...

यथार्थ से दूर
आदर्श से परे
थोथे सिद्धांतों के
नारे लगाते रहे।
गंदगी उलीचने के बहाने
गंदगी में जीते रहे।

न समेट पाए साहस इतना
अपनी निरर्थकता से
दो चार हो सकें।
मुख आइने में देखते
अपने से आँखें चुराते रहे।

जिसकी भी लाठी रही
वह भैंस खोल कर ले गया।
चलता है चलता रहेगा
यह राष्ट्रगीत हम गाते रहे।

राम की आयोध्या
राम का मंदिर
राम का नाम हम भुनाते रहे।
राम जब भी आए
बनवास उनको हम देते रहे।

मथुरा कलौनी

Monday, January 26, 2009

सूज़ैन का बिस्तर

मीनाक्षी - पहले तुम बोलो।
     
  गनेश - मैं पहले क्यों बोलूँ? पहल तुमने की है। तुम ही पहले बोलो।
     
  मीनाक्षी - नहीं तुम। यू फर्स्ट।
     
  गनेश - सवाल ही नहीं उठता। यू फर्स्ट। लेडीज फर्स्ट।
     
  मीनाक्षी - देखो पहले आप, पहले आप में गाड़ी छूट जाएगी।
     
  गनेश - जिसको गाड़ी पकड़नी हो, वो चिंता करे। अपन की कोई गाड़ी नहीं छूट रही।
     
  मीनाक्षी - हूँ ... तो गणेश मैं...
     
  गनेश - गणेश नहीं, गनेश।
     
  मीनाक्षी - शुद्ध शद तो गणेश है।
     
  गनेश - गनेश मेरा नाम है, कोई व्याकरण का विषय नहीं।
     
  मीनाक्षी - ठीक है ठीक है। लो तुम्हारी शिष्या सूज़ैन आ गई।
 
  सूज़ैन - गानेश, मैं तुमको खोज रही थी।
     
  मीनाक्षी - आओ सूज़ैन, तुम अच्छे मौके पर आई।
     
  सूज़ैन - मैं जब भी आती वही मौका अच्छा होता है।
     
  गनेश - हूँ।
     
  मीनाक्षी - हूँ क्या?
     
  गनेश - मैं जब भी आती हूँ, वही मौका अच्छा होता है।
     
  सूज़ैन - ठीक है गुरु जी। मैं जब भी आती हूँ, वही मौका अच्छा होता है।
     
  मीनाक्षी - गुरु जी?
     
  सूज़ैन - मैंने गानेश को अपना गुरु जी बनाया है।
     
  गनेश - (मुँह बनाता है।) इस वाक्य में बहुत गलतियाँ हैं, सूजन।
     
  मीनाक्षी - क्यों बेचारी का नाम बिगाड़ रहे हो! नाम सूजन नहीं सूज़ैन है।
     
  गनेश - मैं इसको कितनी बार बता चुका हूँ कि मेरा नाम गानेश नहीं गनेश है। पर यह गानेश ही पर अटकी हुई है। अब मैंने भी तय किया है कि मैं इसे सूजन बुलाऊँगा, फिर देखता हूँ इसका मुँह सूजता है कि नहीं।
     
  (मीनाक्षी हँसती है।)
     
  सूज़ैन - सूजन क्या होता है?
     
  मीनाक्षी - थोड़ी देरी के लिए अपना हिंदी अध्याय बंद रखो। मैं जो बताने वाली थी उसे सुनो। कल गनेश हमें बाहर खाना खिला रहा है।
     
  गनेश - मैंने ले जाने की बात की थी, खिलाने की नहीं। सब अपना-अपना बिल चुकाना।
     
  मीनाक्षी - (हँसती है) ठीक है, ठीक है। तुम जैसे कंजूस से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।
     
  सूज़ैन - गान...गनेश, मुझे तुमसे हिंदी के बारे में बात करनी है।
     
  गनेश - ठीक है।
     
  सूज़ैन - आज शाम को?
     
  गनेश - ठीक है।
     
  सूज़ैन - बिस्तर में?
     
  गनेश - क्या...!!
     
  मीनाक्षी - ये क्या हो रहा है! मैं चलती हूँ।
     
  गनेश - नहीं रुको मीनाक्षी। यह क्या बकवास कर रही हो तुम सूज़ैन?
     
  सूज़ैन - तुम्हारे पास टाइम नहीं है तो...
     
  गनेश - तुम मुझे गुरु मानती हो और ऐसी बातें कर रही हो! तुमने मुझे समझ क्या रखा है।
     
  सूज़ैन - मैंने क्या कहा जो तुम गुस्सा हो रहे हो।
     
  गनेश - बिस्तर में बताने को कह रही हो और कहती हो कि मैंने क्या कहा!
     
  सूज़ैन - बिस्तर में नहीं बताओगे तो समझ में कैसे आएगा।
     
  गनेश - फिर...फिर..
     
  मीनाक्षी - गनेश मुझे लगता है कि यहाँ कुछ गड़बड़ है।
     
  गनेश - कुछ क्या, बहुत गड़बड़ है।
     
  मीनाक्षी - सूज़ैन तुम हिंदी बिस्तर में क्यों सीखना चाहती हो।
     
  सूज़ैन - मुझे प्रॉब्लम है। मैं स्लो हूँ। गनेश डीटेल में बताएगा तो मुझे समझ में आएगा।
     
  (मीनाक्षी हँसने लगती है और हँसते हँसते लोट-पोट हो जाती है।)
     
  गनेश - अब तुमको क्या हुआ!
     
  मीनाक्षी - नहीं समझे? सूज़ैन तुम्हें बिस्तर में नहीं विस्तार में बताने को कह रही है।
     
  गनेश - विस्तार... बिस्तर... विस्तार। हे भगवान! अर्थ का अनर्थ इसी को कहते हैं!
     
  मीनाक्षी सूज़ैन को समझाती है। बिस्तर और विस्तार में अंतर बताती है। सूज़ैन शर्माती है और झिझकती है। फिर तीनों हँसते हैं।