Monday, August 31, 2009

मेरी खिड़की से

तीन साल पहले जब मैं अपने नये फ्लैट में शिफ्ट हुआ तो खिड़की से यह दृश्य देखा।



भले ही बेंगलोर को उद्यानों का शहर कहते हैं पर खिड़की से झाँकने पर ऐसे दृश्य बहुत कम ही देखने को मिलते हैं।



ऐसे मनोरम बाग को देख कर दिल बाग-बाग हो गया था। सुबह पक्षियों के कलरव के साथ उठता था। बड़े पेड़ पर बंदरों का एक परिवार रहता था। उनकी दिनचर्या देखने का घंटों तक आनंद उठाया जा सकता था। फिर गिलहरियों का खेल। कैसे पेड़ की एक फुनगी से दूसरी में कूदती थीं। यह तब की बात थी।

वे आये थे कुल्हाड़े और मोटराइज्ड आरे लेकर। एक दिन में सारे पेड़ गिरा दिये। सारे झाड़ काट डाले। उस दिन बहुत ही दुखी मन से सोने गया था। सुबह पक्षियों का कलरव नहीं था। आर्तनाद था। पता नहीं कितने घोंसले उजड़े थे। बंदरों का परिवार पता नहीं कहाँ चला गया। एक हफ्ते तक वे ट्रकों में लकड़ियाँ भर कर ले जाते रहे। उस जगह प्रकृति का निर्मम बलात्कार हुआ था। एक गिलहरी की लाश दिखाई पड़ रही थी।



आज का दृश्य देखिये। पेड़ तो आरे से काट डाले गये थे। पर दूर और गहरी फैली हुई जड़ें तो खोद खोद कर ही निकालनी पड़ रही हैं। ऐसा लगता है किसी जानवर की लाश ऊपर गिद्ध पिले हुए हैं।

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत विभत्स!

Manasi said...

ज़मीन के लिए इंसानी भूख कब शांत होगी?
- मानसी