Saturday, June 20, 2009

बेंगलोर में ख़राशें का सफल मंचन



हमारा पिछला नाटक कब तक रहें कुँवारे हँसी ठहाकों से भरपूर था। अगले मंचन के लिये एक कॉमेडी की तलाश थी। हाथ लग गया गुलज़ार का लिखा नाटक ख़राशें। मैं साधारणतया उतना भावुक व्यक्ति नहीं हूँ। पर नाटक पढ़ा तो मैं तो हिल गया। सोद्देश्य मंचनीय नाटक कम ही मिलते हैं। ख़राशें में तो एक-एक शब्द 'हार्डहिटिंग' है। कहना न होगा कि अगले मंचन के लिये नाटक की खोज 'ख़राशें' पर समाप्त हो गई।

ख़राशें एक ऐसा नाटक है जिसमें आप पात्र में परकाया प्रवेश नहीं कर पाते हो या गुलज़ार का दर्द नहीं समझ पाते हो तो आप पात्र के साथ न्याय नहीं कर पाते हो।


नाटक की परिकल्पना श्री सलीम आरिफ़ की है। गुलज़ार की कविताओं और कहानियों का 'कोलाज़' बहुत ही संगठित है। थोड़ी भी ढील की गुंजाइश नहीं है। सलीम आरिफ़ ने अपने मंचन में सात पात्र रखे थे। हमने रिहर्सल आरंभ किया 10 पात्रों से। पारिवारिक और काम के पूर्वाग्रह के कारण दो पात्र कुछ निकल गये। आठ पात्रों से नाटक आगे बढाया। जो पात्र ख़ौफ़ कहानी को अंजाम दे रहा था वह अभिनेता ओ अच्छा था पर पात्र को नहीं जी पा रहा था। उसको एक बड़ी ही असहज विदाई देनी पड़ी। ख़ौफ़ का रोल उस पात्र के पल्ले पड़ा जो पहले ही खुदा हाफ़िज़ वाला लंबा रोल कर रहा था। वह ख़ौफ़ करने को कतई तैयार नहीं था। थोेड़ी ना नुकुर के बाद वह तैयार हो ही गया। 11 पन्नों का लंबा एकल संवाद था। वह तो पात्र में डूब ही गया। नाटक में चार कहानियाँ हैं और कहानियों के पहले कहानी को परिभाषित करती कविताएँ हैं। नाटक के पात्रों चारों कहानियों ने दर्शकों को दहला दिया। कविताओं ने कइयों की आँखें आर्द्र कर दी थीं।

नाटक के तीन प्रदर्शन हुए। तीनों हाउसफुल रहे। कई लोगों को निराश वापस जाना पड़ा।

यों तो हिन्दी नाटकों की अंग्रेजी पत्रों में बहुत कम समीक्षाएँ आती है पर कलायन संस्था बेंगलोर में बीस वर्षों से हिंदी नाटकों का मंचन कर रही है। समीक्षाएँ भी आती रहती हैं। ख़राशें के लिये हम सराहना मिली है। (यहाँ पढ़ें) सब मिला के ख़राशें का मंचन बहुत ही संतोषजनक रहा।