Thursday, March 13, 2008

दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

पंख अब हम कहाँ फैलायें
आसमां क्यों सिकुड़ सा गया है
सूरज तो रोज ही उगता है
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

आँखों में है धूल और पसीना
मंजिल धुँधली नजर आ रही है
अभी तो दिन ढला ही नहीं
साये क्यों लंबे हो गये हैं।

अंधेरों की अब आदत पड़ सी गई है
ऑखें चुंधियाती हैं शीतल चांदनी में
बियाबां की डरावनी शक्लें हैं
चेहरे ही गुम क्यों हो गये हैं।

जमीं पे पाया औ यहीं है खोया
क्यों ढूढते हैं हम अब आसमां में
हम वही हैं कारवां भी वही है
पर आदमी अब कम क्यों हो गये हैं।


-मथुरा कलौनी

5 comments:

अमिताभ मीत said...

बहुत उम्दा. बहुत गहरी. बहुत अच्छी रचना.

मथुरा कलौनी said...

हौसला बढ़ाने के लिए शुक्रिया।
आपके ब्‍लॉग पर गया था। अच्‍छा लगा। अगर आप शेर के माध्‍यम से कुछ कहना चाह रहे हैं तो ऐसी रचना कभी सस्‍ती नहीं हो सकती है।

Tys on Ice said...

you been tagged..

~nm said...

Very beautiful! (I don't know how to post comments in Hindi..sorry..)

मथुरा कलौनी said...

Thanx.

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