Saturday, March 1, 2008

बीस साल बाद

परिधि के बाहर

स्त्री-पुरुष संबंधों पर मेरी यह कहानी बीस साल पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी थी। उस समय कहानी चर्चा का विषय बनी थी। एक मित्र ने मुझसे यहाँ तक कहा था कि ऐसी कहानी न लिखा करूँ, "बेकार में झगड़ा होता है"। पता नहीं आज के जमाने में (तब बीसवीं सदी थी और अभी इक्कीसवीं चल रही है) यह कहानी कितनी समसामयिक है। मेरे अपने संकीर्ण दायरे में तो लगता है कि हम इस तरह की मानसिकता को शायद बीसवीं सदी में ही छोड़ आए हैं, पर मेरे दायरे के बाहर दुनिया बहुत बड़ी है। अस्तु। पढ़िए और गुनिए।


परिधि के बाहर

'ईश्वर, तुम नहीं चाहते हो तो मैं नौकरी छोड़ देती हूँ।'

'जैसे मेरे कहने से तुम छोड़ ही दोगी।'

'तुम कह के तो देखो!'

'मैं क्यों कहूँ? तुम्हें छोड़ना है तो छोड़ो।'

'यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। तुमको अच्छी तरह से मालूम है कि अपनी इच्छा से मैं अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। फिर जो मैं कमाती हूँ वह कम नहीं है। मैं नौकरी छोड़ दूँगी तो...'

'अरे तुम नौकरी छोड़ दोगी तो हम भूखे नहीं मरेंगे। अभी इतना कमाता ही हूँ कि हम दोनों का गुजारा हो सके। अपनी कमाई का बहुत घमंड तुम्हें?'

'घमंड नहीं गर्व है। तुम्हें अपनी स्थिति पर गर्व है तो मुझे भी है। कड़ी मेहनत और लगन से ही मैं इस स्थिति तक पहुँची हूँ।'

'यह कहो कि कुमार की मेहरबानी से इस स्थिति तक पहुँची हो।'

ईश्वर और चंद्रा का प्रेम विवाह था। चंद्रा आधुनिक दुनिया की एक कामकाजी महिला थी। हो सकता है उसने नौकरी मजबूरी में की हो। पर यह मजबूरी वैसी ही थी, जैसी एक पुरुष के लिए होती है। उसके जीवन की परिस्थिति ऐसी थी कि उसका नौकरी करना बहुत स्वाभाविक था। नौकरी करते उसको कई वर्ष बीत गए थे। ऑफिस की दुनिया में उसकी अपनी जिम्मेदारी थी, अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं, अपने निर्णय थे। और यह अहसास था कि वह भी कुछ कर रही है जो किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान के लिए इतना महत्वपूर्ण होता है।

डेढ़ साल पहले उसने ईश्वर से शादी की थी। उसे मालूम था कि पुरुषों की दुनिया में यह कहना कुछ अटपटा लगता है कि उसने ईश्वर से शादी की थी, क्यों कि यहाँ पुरुष शादी करते हैं और स्त्रियों की शादी होती है। पर चंद्रा ने ऐसा कभी नहीं सोचा था। दोनों का प्रेम विवाह था - बराबरी का।

शादी का ग्लैमर तो कुछ ही महीनों में समाप्त प्राय हो गया था। फिर आरंभ हुए थे झगड़े। जैसा कि होता है, बिना किसी ठोस कारण वाले झगड़े। अपनी कुंठाओं और दबी हुई इच्छाओं का ओछा प्रदर्शन। पर चंद्रा परिपक्व थी। वह जानती थी कि ये झगड़े उन दोनों के बीच कारण-अकारण तनाव में सेफ्टी वाल्भ का काम करते हैं और इसलिए जीवन के अनिवार्य अंग हैं।

वह महसूस कर रही थी कि पिछले कुछ अरसे से एक दो विषयों पर झगड़े अधिक हो रहे थे। विषय थे उसकी स्वच्छंदता, उसकी नौकरी और उसका कुमार के साथ काम करना। पहली बार जब ईश्वर ने कुमार की मेहरबानी की बात की थी तो चंद्रा को उन दोनों के बीच प्यार और समझदारी की जो इमारत थी, ढहती हुई नजर आई। केवल शादी के बंधन ने चंद्रा को बाँधे रखा। हालाँकि ईश्वर ने केवल ऐसी ही बात कही थी जो पुरुष प्रधान समाज में अकसर कही जाती है। चंद्रा को मालूम था कि कि औरत और मर्द के संबंधों में औरत को कभी भी अकारण दोषी ठहराया जा सकता है। पर उसे कम-से-कम ईश्वर से ऐसी आशा नहीं थी।

वह रात भर रोती रही थी। यदि ईश्वर के मन में गंदगी आई तो उसके पास अपनी समझदारी थी, चंद्रा का प्यार था, फिर उसने यह गंदगी क्यों उगली।

ईश्वर ने उसे बहुत मनाया। दो दिन तक रोया गिड़गिड़ाया। चंद्रा ने जब देखा कि वह सचमुच पश्चात्ताप कर रहा है तो वह ठीक हुई थी। यह तब की बात है। अब भी तैश में, गुस्से में ईश्वर कुमार की मेहरबानी की बात करता है। पर अब चंद्रा रोती नहीं है। दाम्पत्य जीवन के लिए कुछ मूल्य शायद चुकाना ही पड़ता है। अब वह इसी विचार को ढाल के तौर पर व्यवहार में लाती है। किंतु कुमार को ले कर उसका अपमान, अब भी एक करारी चोट होती है। वह अपने को सँभाले ही सँभाल पाती है। चोट करने के बाद ईश्वर अब भी पछताता है कि उसने ऐसा क्यों कहा।

'चंद्रा, आई एम सॉरी !' वह कहता है।

'यह कोई पहली बार सॉरी नहीं बोल रहे हो तुम! चंद्रा कहती है।

'पता नहीं मुझे क्या हो जाता है कभी-कभी!'

'मुझे मालूम है तुम्हें क्या हो जाता है। तुम कहने को तो आधुनिक हो, लेकिन प्रकृति तुम्हारी वही केव-मैन की है।'

'यह तो तुम ज्यादती कर रही हो।'

'मैं ज्यादती कर रही हूँ? अगर तुम सचमुच समझदार हो तो तुम मेरे अस्तित्व को क्यों नहीं स्वीकार करते? मेरा भी अपना व्यक्तित्व है। मैं भी तुम्हारी तरह काम करती हूँ। काम में देर-सबेर तो होती रहती है। वहाँ मेरी भी जिम्मेदारी है। इतनी सी बात तुम समझते तो आज का यह सीन नहीं होता।'

'मैं समझता हूँ चंद्रा कि तुम बहुत मीक हो। अपने अधिकारों के लिए खड़ी नहीं हो सकती हो। एक बार कुमार ने कह दिया कि रुक जाओ और बस तुम रुक गईं। तुम्हारे ऑफिस में और भी तो स्टाफ है, फिर तुम्हीं को क्यों रुकना पड़ता है। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी पत्नी के अच्छे स्वभाव का लाभ उठाए।'

'देखो ईश्वर, तुमको मालूम है कि अठारह साल की उमर से मैं स्वावलंबी हो कर नौकरी कर रही हूँ। अच्छे-बुरे की तमीज है मुझमें। मेरे व्यक्तित्व को क्यों नहीं स्वीकारते तुम?'

'अपनी लच्छेदार बातें रहने दो चंद्रा! सच बात तो यह है कि तुम्हारा अहम् बहुत बड़ा है। मुझसे हजम नहीं होता है। एक अकेली तुम ही तो नौकरी नहीं कर रही हो। लाखों औरतें काम करती हैं। तुम्हारी तरह घर से अधिक ऑफिस को अहमियत कोई नहीं देता है।'

'पता नहीं ईश्वर, तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं। तुम चाहते हो कि मैं नौकरी भी करूँ तो तुम्हारी शर्तों पर। तुम अहमियत की बात कर रहे हो। तुम मुझसे मुँह खोल कर कहो कि चंद्रा तुम नौकरी मत करो तो मैं नौकरी नहीं करूँगी। मुझे भले ही यह अच्छा न लगे। यदि मैं तुमसे कहूँ कि ईश्वर तुम नौकरी न करो तो तुम शायद ही मेरी बात मानो।'

'ऐसा भी कहीं हुआ है क्या?'

'नहीं हुआ है। मुझे मालूम है। तभी तो... '

बहस ऐसे ही समाप्त होती है, या बढ़ती ही चली जाती है, जब तक कि एक थक न जाए। यहाँ बात समझने की नहीं होती, मानने की होती है। दोनों को एक दूसरे के मन की बात का पता रहता है।
पिछले एक साल से कमोबेश यही चला आ रहा था। और यही चलता रहेगा, चंद्रा ने सोचा। हमारा व्यवहार इतना प्रेडिक्टेबल क्यों होता है? झगड़ा नहीं करना चाहते हैं, तो क्यों करते हैं? क्या हम अपनी इस मानसिकता पर कभी विजय पा सकेंगे?

साढ़े पाँच बज गए थे। कुमार के केबिन का दरवाजा अभी तक बंद था। आज फिर देर हो जाएगी, चंद्रा ने सोचा।

- अभी और है, जिसे मैं एक या दो दिन के अंदर अपलोड करने की चेष्‍टा करूँगा।

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