Tuesday, March 4, 2008

परिधि के बाहर - शेष कहानी

उसका अनुमान ठीक निकला। कुमार अपने केबिन से निकल कर उसके टेबल के पास आया और बोला, 'चंद्रा आज कुछ देर रुकना पड़ेगा।'


'रुक जाऊँगी सर।'


'एग्रीमेंट के पेपर तैयार रखना।'


'तैयार हैं सर। बस, रिक्त स्थानों की पूर्ति बाकी है।'


'गुड गर्ल। जरा तीन कप चाय अंदर भिजवा दो और सब पेपर्स लेकर दस मिनट में तुम भी अंदर आ जाओ।'


कुमार के स्वर में उत्साह था। चंद्रा भी उससे प्रभावित हो उठी। एक बड़ा बिजनेस एग्रीमेंट! कुमार इन्टरप्राइज की लंबी यात्रा का एक और माइल स्टोन। काश, ईश्वर इसे समझ सकता।


कुमार ने उसे उस समय काम दिया था जब उसे काम की बहुत अधिक आवश्यकता थी। तब कंपनी आठ फुट बाई आठ फुट के कमरे में समाई हुई थी। वहाँ से उन्नति करके कुमार इन्टरप्राइज आज इतनी बड़ी कंपनी हो गई है। इस कंपनी के साथ ऊँच-नीच समझते हुए वह भी परिपक्व हुई है। कुमार के साथ काम करने में उसे आनंद आता है। सुलझा हुआ, आत्मविश्वासी और उदार व्यक्तित्व। उसे उसके काम के लिए श्रेय देने में या वार्षिक इन्क्रीमेंट, केश एवार्ड ओर बोनस देने में उसने कभी कृपणता नहीं दिखाई।


ईश्वर कुमार से जलता है। इसलिए कि वह उसे बहुत अधिक मानती है। वह ईश्वर को कैसे समझाए? क्या वह नहीं जानता है कि कुमार उसका इंप्लायर है, लवर नहीं।


फोन की आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ी। उसने रिसीवर उठाया। दूसरी ओर से आवाज आई 'हलो कुमार!' राधिका का स्वर था - कुमार की पत्नी का।


'मिस्टर कुमार क्लाइन्टों के साथ मीटिंग में हैं, मिसेज कुमार।' उसने उत्तर दिया।


'पर यह तो कुमार का डाइरेक्ट नंबर है।'


' जी, पर जब वे इंपॉर्टेन्ट मीटिंग में होते है तो उनकी सब कॉल मैं ही मॉनीटर करती हूँ।'


'तुम चंद्रा हो?'


राधिका कुमार कई बार उससे मिल चुकी है, हजारों बार उससे फोन में बात कर चुकी है, पर उसे नहीं पहचानने का अभिनय करना नहीं भूलती।


'फोन कुमार को दो।' राधिका ने उग्र स्वर में कहा।


'जी अभी देती हूँ।' उसने कहा।


कुमार के फोन से लाइन जोड़ कर उसने कहा, 'सर, मिसेज कुमार आपसे बात करना चाहती हैं।'


'ओह, चंद्रा तुम भी... अच्छा कनेक्ट करो।' कुमार ने कहा।


ऑफिस बंद करते-करते आठ बज गए। ऑफिस से निकल कर चंद्रा ने कहा, 'अच्छा सर, अब मैं चलती हूँ।'


'दिमाग खराब है तुम्हारा! मैं तुम्हें तुम्हारे घर तब छोड़ देता हूँ।' कुमार ने कहा।


वह कुमार से कैसे कहे कि कार में जाना उसके लिए कितना महँगा पड़ेगा। इतना तो अनुमान वह लगा ही सकती थी कि कल उसे ले कर कुमार और राधिका में झड़प होगी। जब भी वे दोनों शाम को देर तक काम करते हैं, राधिका का फोन आता है और अगले दिन कुमार का मूड खराब रहता है।
इतना ही नहीं, कुमार की कार में उसे देख कर ईश्वर का पारा भी सातवें आसमान में चढ़ जाएगा। ईश्वर का व्यवहार तो उसे समझ में आता है। वह जानती है कि मर्दों की दुनिया में औरत मर्दों की संपत्ति है। इसलिए औेरत का अपना अलग अस्तित्व उनको स्वीकार नहीं हो सकता है। लेकिन राधिका तो एक औरत है, फिर भी वह ईश्वर की तरह क्यों सोचती है? ( समाप्‍त)

- मथुरा कलौनी

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