Wednesday, March 23, 2011

प्रेमिका संवाद

प्रेमिका संवाद ( कहानी - मथुरा कलौनी )

मार्च का महीना था। आम के पेड़ों में बौर आ चुका था। जिस सड़क पर प्रेमाशिष दौड़ रहा था, उसके दोनों ओर आम के पेड़ थे। रस टपकने से ऐसा लग रहा था जैसे सड़क पर शहद से छिड़काव किया गया हो। प्रेमाशिष के जूते चिट-चिट कर रहे थे। दौड़ते-दौड़ते वह हाँफ गया तो सुस्ताने के लिये सड़क के किनारे बने एक सिमेंट के बेंच पर बैठ गया। गंगा किनारे धरती पर कछुए के कूबड़ जैसे टीले पर यह पार्क बना हुआ था। चार किलोमीटर परिधि के घेरे में इसकी अपनी अलग ही दुनिया थी। जिस सड़क के किनारे वह बैठा हुआ था, वह पार्क की मुख्य सड़क थी। सड़क के दोनों ओर सुंदर उद्यानों के बीच मकान बने हुए थे। मकानों के नाम भी बड़े मनभावन थे जैसे शांति निकेतन, फूल गाँव, पेड़ों वाला घर इत्यादि। फूल गाँव, जैसा कि नाम से प्रतीत होता है, फूलों के उद्यानों से घिरा हुआ घर था जो प्रेमाशिष के मित्र मदन का था। प्रेमाशिष आजकल मदन के साथ रह रहा था।

उसने सोचा था घर से दूर, मदन के साथ उसका दिल बहल जायेगा, पर ऐसा नहीं हो पा रहा था। यहाँ के शस्य श्यामल सुरम्य वातावरण में उसे अपनी भूतपूर्व प्रेमिका की याद बार-बार आ रही थी। जो प्रेमाशिष को जानते हैं उनके लिये स्पष्ट किया जाता है कि जिस भूतपूर्व प्रेमिका की याद उसे सता रही थी उसका नाम सरला है। उसी के प्रेम में घायल प्रेमाशिष सोच रहा था कि छोटी-सी यह दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे तब पूछेंगे कि कुमारी सरला क्या मिल गया आपको हमारा प्यार ठुकरा कर?

मदन के पास आने का दूसरा और मुख्य कारण था जीविकोपार्जन का कुछ ठोस और स्थाई कार्यक्रम बनाना। नौकरी उसे मिल नहीं रही थी। किसी ख्यातिप्राप्त अच्छी कंपनी में अच्छी नौकरी के लिये पचपन प्रतिशत अंकों से पास की हुई उसकी बी.ए. की डिग्री यथेष्ट नहीं थी। सरकारी नौकरी के लिये न तो वह किसी आरक्षित कोटे में आता था और न उसकी वंशावली उपयुक्त थी। अभी तो वह कभी किसी शोरूम में, कभी किसी स्टोर में और कभी किसी परचून की दुकान में काम करके अपने जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ा रहा था।

सरला थी तो आशा और विश्वास था कि यह करेंगे वह करेंगे, पर जब उसने संबंध विच्छेद कर दिया तो उसके साथ सारा उत्साह जाता रहा। चूँकि उत्साह नहीं था इसलिए अब वह बहुत कुछ नहीं कर सकता था, पर नून तेल का कुछ न कुछ समाधान तो हो ही जाना चाहिए। रोज-रोज की झिक-झिक किसे पसंद है। प्रेमिका विहीन जीवन की आवश्यकताएँ ही कितनी, पर इस महँगाई में वे भी भारी पड़ रही थीं।

सुबह की शीतल स्वच्छ बयार पेड़ों पर सरसरा कर बह रही थी। चिड़ियाँ अपनी दिनचर्या में जुट चुकी थीं। यहाँ शांति की अनुभूति इतनी थी कि हवा की सरसराहट और चिड़ियों की चहचहाहट के ऊपर वह अपने हृदय की गति भी सुन पा रहा था। थप..थप..थप..थप।

यह क्या, थप-थप की आवाज तेज होती चली जा रही थी। अब वह दाहिनी ओर से आ रही थी। धत् तेरे की। यहाँ खामोशी में किसी के दौड़ने की आवाज को वह अपने दिल की धड़कन समझ बैठा था। दौड़ने वाली एक लड़की थी जो उसी की ओर आ रही थी। उसने लक्ष्य किया कि वह बहुत कुछ सरला से मिलती थी। उसने ट्रैक सूट भी ठीक वैसा ही पहन रखा था जैसा सरला के पास था। सफेद धारियों वाला गहरे नीले रंग का ट्रैक सूट। कद काठी और दौड़ने का अंदाज सब सरला जैसे ही थे।

प्रेमाशिष अपने ऊपर हँस कर दूसरी ओर देखने लगा। सावन के अंधे को सब हरा ही सूझता है। सरला की चाहत में उसकी कल्पना यथार्थ पर हावी हो रही थी। जब लड़की उसके पास पहुँची तो वह ठिठक गई। उसने उसे उसका नाम लेकर पुकारा, 'प्रेम!'

प्रेमाशिष ने जब उस लड़की को पास से देखा तो उसे मालूम हुआ कि वह क्यों सरला जैसी दिख रही थी। वह स्वयं सरला ही थी।

अभी और है। आगे कल शाम तक

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