प्रेमिका संवाद -4
अब तक आपने पढ़ा
प्रेमिका संवाद -1 प्रेमिका संवाद -2 प्रेमिका संवाद - 3
अब आगे-
सरला प्रेमाशिष को दिल की गहराइयों से प्यार करती थी। ऐसा प्यार कभी-कभी कष्टप्रद होता है, जैसा कि सरला अनुभव कर रही थी। वह एक सूझबूझ वाली समझदार युवती थी। उसके पास भावुक हृदय था तो बुद्धियुक्त मस्तिष्क भी था। उसे मालूम हो चुका था कि प्रेमाशिष का प्यार टुकड़े-टुकड़े बँटा है। उसके हिस्से उसके प्यार का एक अणुसूक्ष्म टुकड़ा पड़ा था, जिसका जाहिर है, होना न होना बराबर था। चंद्रिका, कमला, निशा, विभा, तारा, सुजाता... नामों की एक लंबी सूची थी, जिसके अंत में उसका नाम भी था। अब तक शायद कुछ और नाम जुड़ गये हों। उसने सुन रखा था कि प्रेमाशिष की प्रेमिकाएँ एक क्रिकेट के मैदान में भी नहीं समाएंगी। ऐसे में वह क्या आशा कर सकती है! उस भीड़ में समा जाए तो क्या होगा! उसे शायद डीप थर्डमैन क्षेत्र में खड़े होने भर को स्थान मिल जाए। यह उसे स्वीकार्य नहीं था। उसे ऐसा पति चाहिए था, जो केवल उसी का हो। वह उसे चंद्रिका, कमला, निशा, विभा, तारा, सुजाता आदि की भीड़ में बाँटने के लिये तैयार नहीं थी।
इसमें शायद प्रेमाशिष को अधिक दोष नहीं दिया जा सकता है। उसका तो नाम ही प्रेमाशिष है। यदि शहर की सभी लड़कियाँ उसके आगे-पीछे नाचती रहें तो उसे कितना दोष दिया जा सकता है? समझ-बूझ कर पूरे होशोहवास में उसने प्रेमाशिष से दूर रहने का निर्णय लिया था। पर निर्णय लेने से ही बात समाप्त नहीं हो जाती। उस पर बने रहना भी पड़ता है, जो उसे बहुत कष्टप्रद प्रतीत हो रहा था।
सरला न एक नहीं तीन निर्णय लिये थे। एक, वह प्रेमाशिष से दूर रहेगी। जिस गली में तेरा घर हो या गुजर हो बालमा, उस गली में पाँव रखना ही नहीं है। दो, वह कभी शादी नहीं करेगी। चूँकि इस जनम का सारा प्यार वह प्रेम को अर्पण कर चुकी है और प्रेम केवल उसका हो कर नहीं रह सकता है, इसलिए शादी का प्रश्न ही नहीं उठता है। प्रेम को छोड़ कर किसी और से शादी करना तो उस व्यक्ति के गले जिंदा मढ़ने के समान है। ऐसा पाप वह कभी नहीं कर सकती है। तीन, वह अपने जीवन को मानवोपयोगी कार्यों में समर्पित कर देगी। उद्देश्यहीन जीवन चलती-फिरती लाश के समान है। मानसिक शांति के लिये भी उद्देश्य का होना बहुत आवश्यक है, विशेष कर जबकि उसका पहाड़ जैसा तीन-चौथाई जीवन उसके सामने है।
मनुष्य ने कोई अच्छा निर्णय लिया नहीं कि भगवान परीक्षा लेने पहुँच जाते हैं। सरला के पिताजी अचानक उसकी शादी के लिए बहुत सक्रिय हो गये। वे अपनी पुत्री के प्रति बहुत चिंतित हो उठे थे। पुत्री का भरी जवानी में उदासीन होना और शादी न करने का संकल्प करना किसी भी बाप को चिंतातुर कर सकता है।
सरला कुछ दिन शांत से बिताने के लिये अपनी चचेरी बहन चंपा के पास पार्क में चली आई थी। बहन से मिलने की खुशी में वह यह बात एकदम भूल गई कि प्रसाद भी पार्क में ही रहता है। प्रसाद और सरला के परिवार में पुरानी जान पहचान है। बचपन में दोनों एक दूसरे के पड़ोसी रह चुके हैं। तब एकाध बार उन दोनों की शादी का जिक्र हुआ था। उसी आधार पर प्रसाद सरला पर अपना हक समझा था। पर सरला को प्रसाद कभी एक आँख नहीं भाया। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना उचित है कि एक आँख भाना केवल भाषा का प्रयोग है। ऐसी स्थिति में ऐसा ही कहा जाता है। क्यों कहा जाता है यह लेखक को नहीं मालूम। इसलिए यह न समझ लेना चाहिए कि सरला प्रसाद को केवल एक आँख से देखती थी। उसने उसे जब भी देखा दोनों आँखों से ही देखा, पर वह उसे किसी तरह भी पसंद नहीं आया।
उधर सरला के पिताजी की धारणा दूसरी ही थी। वे प्रसाद को सरला के लिये उपयुक्त पा रहे थे। उन्होंने इस आशय के पत्र प्रसाद, प्रसाद के पिताजी, चंपा के पति और सरला को एक ही डाक से भेज दिये।
प्रसाद एक मेधावी गणितज्ञ था। अधिक मिलनसार तो नहीं था पर पार्क की सामाजिक दुनिया के एक ऐसा पात्र था जो बस था। सरला के प्रति उसका व्यवहार किसी समझदार व्यक्ति का सा नहीं था, जो पार्क में आजकल चर्चा का विषय था। लोगों को आश्चर्य इस बात पर था कि सरला ऐसी समझदार और आधुनिक लड़की प्रसाद को क्यों सहन कर रही है।
उधर सरला की धारणा थी, यदि वह प्रसाद को दुत्कार देती है तो उसके पिताजी किसी दूसरी जगह उसकी बात चलायेंगे, जहाँ उसे फिर इनकार करना पड़ेगा। इससे कोई अप्रिय घटना न घटे, इससे तो यही अच्छा था कि कुछ दिन प्रसाद को सहन कर लो। वह बेवकूफ आदमी कैसे अधिकारपूर्ण स्वर से उसे 'सरो सरो' बुलाता है। उसे वैसे ही अपने बचपन के इस नाम से चिढ़ है, प्रसाद के बुलाने से तो तन-बदन में आग लग जाती है।
मदन प्रेमाशिष को पेड़ों वाले घर की ओर ले जा रहा था। रास्ते में दोनों बातें करते जा रहे थे। मदन कह रहा था,
'प्रेम मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम में इतना बड़ा परिवर्तन आ जाएगा। एक समय था तुम तारा और... और... और...।'
'सुजाता।' प्रेमाशिष ने कहा।
'हाँ, तारा और सुजाता। एक समय था जब तुम दोनों के साथ पेंगें बढ़ा रहे थे और जब तुम्हारी पोल खुली थी तो कितना बड़ा झमेला खड़ा हुआ था। पर तुम्हारे चेहरे पर शिकन तक नहीं आई थी। और आज एक सरला तुमको छोड़ कर चली गई तो तुम हाय तौबा मचा रहे हो।' मदन ने कहा।
'सरला से पहले जितनी भी लड़कियाँ थीं, उनका अब कोई महत्व नहीं है। वह तो एक तरह से खिलवाड़ था। सरला... जाने दो, तुम नहीं समझोगे। कभी प्रेम में पड़ोगे तो स्वयं समझ जाओगे।' प्रेमाशिष ने कहा।
पेड़ों वाला घर सामने आ गया था। सामने बड़े-बड़े पेड़ थे और फिर सुंदर मकान था। एक पेड़ पर बड़ा सा झूला पड़ा हुआ था, जिसमें एक लड़की बैठी पुस्तक पढ़ रही थी और हौले-हौले झूल रही थी। प्रेमाशिष ने देखा यह वही लड़की थी जो सुबह उसे देख कर मुस्कराई थी। यह मदन की मँगेतर शीला थी जिसे मदन प्रेमाशिष से मिलाने के लिये उत्सुक था। परिचय कराने के लिये वह तत्पर हुआ तो उसने पाया कि शीला और प्रेमाशिष एक दूसरे को देख कर मुस्करा रहे हैं।
'तुम दोनों एक दूसरे को जानते हो?' आश्चर्य से मदन ने पूछा।
' आज सुबह दौड़ते समय मैंने इनको देखा था।' प्रेमाशिष ने कहा।
'तुमने बताया था कि तुम्हारे मित्र प्रेमाशिष आ रहे हैं। सुबह इनको देख कर मैंने अंदाज लगाया कि यह वही हैं।' उस लड़की ने कहा।
'तुमने ठीक अंदाज लगाया। यही प्रेमाशिष है। और प्रेम, यह शीला है मेरी मँगेतर।'
'तुम्हारी मँगेतर!' प्रेमाशिष ने आश्चर्य करते हुए कहा। 'तुमने कुछ बताया ही नहीं। चुपके-चुपके मँगनी कर ली।'
'बताने का समय ही नहीं मिला प्रेम। एक दिन यह मुझे देख कर मुस्कराई। मुस्कराहट मेरे अंदर तक चली गई। इसके बाद जब मुझे होश आया तो मैंने पाया कि इसके साथ मेरी मँगनी हो चुकी है।' मदन ने नाटकीय अंदाज में कहा।
'मदन तुम इस तरह की बात करोगे तो मैं गुस्सा हो जाऊँगी।' शीला ने कहा।
'नहीं नहीं, शीला, यह गुस्से का अवसर नहीं है।' प्रेमाशिष ने कहा। 'सबसे पहले मेरी बधाई स्वीकार करो।'
'प्रेम मैं तुमको एक बात बताऊँ, अभी-अभी मेरे परिचय कराने से पहले ही जब तुम दोनों एक दूसरे को देख कर मुस्करा रहे थे तो मेरा दिल धक् से रह गया था।' मदन ने कहा।
'क्यों क्या हो गया था?' शीला ने कौतूहल से पूछा।
'मैं तुमको बता चुका हूँ शीला कि प्रेम के पास हो न हो कोई एक सम्मोहन मंत्र है। यह जिधर से भी गुजरता है, लड़कियाँ अपना दिल थाल में सजा कर इसके सामने रख देती हैं। मैं डर गया था कि कहीं इसने मेरी इकलौती मँगेतर पर कहीं कोई जादू तो नहीं कर डाला, जो जान न पहचान, इसे देख कर मुस्करा रही है। जिस मुस्कान ने मुझे कहीं का नहीं रखा ही...।' मदन कह रहा था और उसकी बात काट कर प्रेमाशिष न कहा,
'क्या बकवास कर रहे हो मदन! शीला, इसकी बातों में मत जाओ। इस प्रकार की हलकी बातों ने मेरा पहले ही बहुत नुकसान कर दिया है।'
शीला ने घड़ी पी दृष्टि गड़ाते हुए कहा, 'टीले वाले मकान पर नहीं जाना है क्या? देर हो रही है, चलें?'
विनोद का घर टीले के शीर्ष भाग में था। इसीलिए उसे टीले वाला घर कहा जाता था। जब ये लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ 10-12 व्यक्ति पहले से ही उपस्थित थे। चूँकि प्रेमाशिष पार्क में आता रहता था, इसलिए अधिकांश लोगों से वह परिचित था। सभी उससे बड़ी गर्मजोशी से मिले। कुछ इस तरफ की बातें हुईं। कुछ उस तरफ की बातें हुईं। फिर सब लोगों ने सब तरफ की बातें कीं। वैसे तो, जैसी उसके मन की अवस्था थी, प्रेमाशिष को पार्टी वार्टी में जाना पसंद नहीं आ रहा था। एक ओर तो आपकी प्रेमिका आपको आईना दिखा कर चली गई थी, दूसरी ओर आपको पार्टी में जाने को कहा जा रहा था। एक बेयरिंग लिफाफे की तरह। पर अब यहाँ पर नाश्ते का सुरुचिपूर्ण आयोजन और चहल चहल देख कर उसे अच्छा ही लग रहा था। वह इसलिए भी प्रसन्न था कि उसके मित्र मदन की सगाई शीला जैसी अच्छी लड़की से हुई थी, जो बहुत ही हँसमुख और मिलनसार थी। वर्ना उसके ऐसे भी मित्र थे जो शादी से पहले तो थे हम प्याला और हम निवाला और शादी के बाद सब गड़बड़ घोटाला। शादी के बाद कुछ तो ऐसे जमींदोज हुए कि जैसे कभी थे ही नहीं।
मदन और शीला की जोड़ी देख कर उसका ध्यान बरबस अपने ऊपर जा रहा था। नाम तो था प्रेमाशिष पर था प्रेम शापित। क्या ही अच्छा होता यदि सरला उसकी होती और उसके साथ होती। खैर, जो नहीं है, नहीं है।
वह शीघ्र ही शीला से घुलमिल गया। दोनों अपनी-अपनी नाश्ते की प्लेट लिये एक किनारे खड़े बातें करते रहे। आलू दम बहुत दमदार था। प्रेमाशिष को याद नहीं पड़ा कि उसने इससे स्वादिष्ट आलू दम पहले कभी खाया हो। उसने शीला का ध्यान आलू दम की ओर आकर्षित किया तो शीला ने उसे बताया कि वह उन अभागियों में से है जो पाव भर खायें तो उनका वजन सेर भर बढ़ जाता है। स्वयं को प्रलोभन से दूर रखकर, चेहरे में दृढ़ता का भाव लिये वह खाली प्लेट रखने चली गई।
इधर प्रेमाशिष आलू दम में चम्मच डुबोते हुए इस बात पर गौर करने लगा कि आजकल की प्लेटें कितनी कम गहरी होती हैं। प्लेट से सिर उठा कर उसने देखा तो पाया कि सरला उसी की ओर आ रही है। उसका दिल धड़ धड़ धड़ धड़ करने लगा। उसने आगे बढ़ कर कहा, 'सड़ला!'
मुँह में आलू हो तो सरला का उच्चारण करना कठिन होता है।
'प्रेम।' सरला ने कहा। उसके कहने में इतनी तेजी थी कि उसके मुँह से निकला 'फ्रेम'।
'सरला ' प्रेम ने कहा।
'प्रेम।' सरला ने कहा। 'तुम्हारे व्यक्तिगत मामले में बोलने का मुझे अधिकार तो नहीं है, पर बोले बिना नहीं रहा जाता।'
'किसने कहा नहीं है। तुम्हें पूरा अधिकार है।' प्रेमाशिष ने कहा।
'मैं जानती हूँ प्रेम कि जो कुछ तुम कर रहे हो, तुम उसे करने के लिये वाध्य हो। फिर भी करने से पहले कुछ तो सोच लेते। मैं पूछती हूँ कि क्या कोई भी लड़की तुमसे बच नहीं सकती?'
1 2 3
अभी और है। अंतिम किस्त कल शाम तक
No comments:
Post a Comment