Thursday, January 7, 2010

तुमने कुछ कहा होता - एक लघु कथा





मैंने शादी न करने की कसम नहीं खा रखी है। पर हुई नहीं है मेरी शादी अभी तक। अपना सुव्यवस्थित व्यवसाय है। रंग-रूप, कद-काठी औसत से बहुत अच्छे हैं। चालचलन साधारण मापदण्डों के हिसाब से दोष रहित ही है। मतलब यह कि अब तक शादी हो जानी चाहिए थी। सभी पूछते भी हैं कि शादी क्यों नहीं की अब तक, कब कर रहे हो, इत्यादि। पर पता नहीं है। मुझे कोई जल्दी नहीं है।

नहीं नहीं, ऐसा कहना गलत होगा। मुझे पता है कि मेरी शादी क्यों नहीं हो रही है। मैं अपने अंदर शादी के लिये कोई उत्साह नहीं पाता हूँ। पर किसी जमाने में शादी के लिये उत्साह अपनी चरम सीमा में था। उस जमाने में इतना उत्साह, इतनी उतावली रहती थी कि एक प्रेम प्रसंग सामाप्त होते न होते मैं दूसरे में फँस जाता था।

जब मैं छोटा था, यही दस बारह साल का रहा हूँगा जब एक परिवार हमारे पड़ोस में रहने के लिए आया। उस परिवार की बड़ी लड़की का नाम था सुमति। वह मुझसे तीन चार साल छोटी थी। वह मेरी सहपाठिन बनी। साथ पढ़ते खेलते हमलोग बड़े हुए। बड़े हुए तो पता चला कि हम दोनों के परिवार इच्छुक हैं कि हम दोनों की आपस में शादी हो जाय। मैंने इस बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था। हाँ, मुझे सुमति को चिढ़ाने का एक हथियार मिल गया था। तब चिढ़कर सुमति मुझे साला कह कर गाली देती थी। क्या होता था उसकी इस गाली में? मुझे घायल करने की नीयत? उलाहना? खिसियाहट? काश, मैंने जानने का प्रयत्न किया होता।

हमारी शादी नहीं हुई। मेरे कहने का अर्थ है हमारी एक दूसरे के साथ शादी नहीं हुई। आजकल मैं कभी कभी कारण ढूँढ़ने का प्रयत्न करता हूँ। जब दोनों परिवार इच्छुक थे तो शादी क्यों नहीं हुई? मेरे परिवार की ओर से शायद कारण था मेरी माँ की बीमारी। या मेरी बहन की शादी। या हो सकता है कारण हमारा आर्थिक अभाव रहा हो। या मेरी ओर से उत्साह का अभाव। बहुत संभव है सभी स्थितियाँ मिल का एक बहुत बड़ा कारण बन गई हों। पिता जी शायद सोचते थे कि लड़की तो बगल में है, सुविधा से शादी कर देंगे। पिता जी कहते तो शायद मैं बिना ना-नू किए सुमति से शादी कर लेता। पर पिता जी को सुविधा नहीं मिली। बहन की शादी के पश्चात् माँ ने बीमारी में दम तोड़ दिया। और माँ की बरसी से पहले ही पिता जी भी हमें छोड़ कर चल दिये। उस समय सुमति एम ए फायनल में थी और परीक्षा के लिए तैयारी कर रही थी। मैंने तो बी एस सी करने के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी। मैं एक व्यवसाय करने लगा था।

पिता जी के जाते जाते मेरा व्यवसाय जमने लगा था। तब मुझे उचित जीवन साथी की फिक्र हुई। सुमति तो थी ही पर मैं चाहता था कि मुझे कोई दूसरी लड़की भी मिले। यानी लड़की ने बचपन में आपकी बहती हुई नाक देखी हो तो यह आवश्यक नहीं कि उसी से शादी की जाय। फिर मेरा दुनिया का अनुभव ही क्या था। दुनिया से मेरा मतलब है लड़कियों का। मैं बचपन से एक ही लड़की को जानता था। उससे शादी करने के बाद पता चले कि दुनिया सुमति में ही नहीं सिमटी हुई है तो कैसा लगेगा! और भी लड़कियाँ हैं जो शायद सुमति से बहुत अच्छी निकलें। इधर उधर ताक झाँक करने में हर्ज ही क्या है। कोई नहीं मिली तो सुमति तो है ही।

तो इस ताक झाँक में मैं ललिता, अरुणा, बार्बी आदि के दौर से गुजरा। कहीं आभिजात्य आड़े आया तो कहीं धर्म। एक दो लड़कियों से तो मैंने स्वयं किनारा कर लिया था।

इस बीच मेरी सुमति से भी यदा कदा मुलाकात हो ही जाती थी। कभी मुझे लगता था कि वह मुझसे उतनी सहज नहीं है। या क्या यह मेरा भ्रम था? कभी लगता था कि हमारे बीच वही पुरानी सहजता है। या क्या यह भी मेरा भ्रम था?

मेरी लड़कियों से मित्रता के बारे में न कभी सुमति ने कुछ पूछा ओर न ही मैंने उसे इस संबंध में कुछ बताने की आवश्यकता समझी। मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में यह विचार कर रहा था कि मुझे सुमति से शादी करनी चाहिये उधर सुमति और उसके परिवार का कुछ दूसरा ही प्रोग्राम बन रहा था जिसकी मुझे कोई खबर नहीं थी। खबर होती कैसे, उस समय तो मैं बार्बी की अधकटी जुल्फों में उलझने की चेष्टा कर रहा था।



कहानी बस थोड़ी और है। दूसरा और अंतिम भाग आगामी इतवार तक...

2 comments:

Asha Joglekar said...

प्रतीक्षा रहेगी ।

अनूप शुक्ल said...

वो कहानी बांच के इधर आये हैं। क्या अजब बात है। दुखी किया और हुये भी।