कनाडा से पाराशर गौर जी ने यह कविता भेजी है। ज्यों की त्यों यहॉं रख रहा हूँ।
पाराशर जी संवेदनशील व्यक्ति हैं तथा दिल से लिखते हैं।
----------------
ये कविता उनको समर्पित जो देहली के धमाको मारे गए या ज़ख्मे हुए !
पीड़ा
आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बाँटते थे अपना अमनोचैन
दुःख दर्द , कल के सपने
घर की दहलीज़ पर देती दस्तक
आज की सांझ , ओ सांझ न थी ... आज की
दूर छितिज पर ढलती लालिमा
आज सिंदूरी रंग की अपेक्षा
कुछ ज्यादा ही गाढ़ी लाल देखाई दे रही थी
उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
जो अहसास दिला रही थी
दिन के कत्ल होने का
आज की फिजा , ओ फिजा न थी .... आज की शाम
चौक से जाती गलियॉं
उदास थीं ...
गुजरता मोड़ ,
गुमसुम था
खेत की मेंड भी
गमगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये शहर , आज वो शहर न था ... आज की शाम
धमाकों के साथ चीखते स्वर
साहरो की तलाश में भटकते
लहू में सने हाथ ......
अफरा तफरी में भागते गिरते लोग
ये रौनकी बाजार पल में शमसान बनगया
यहाँ पर पहिले एसा मौहोल तो कभी न था
ये क्या होगया ? किसके नजर लग गयी ... आज की शाम
बर्षो साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होनेवाला हाथ
हाथ छुटा
सपनो की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते देखते भाई से बिछुड़ी बहिना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई माँ की गोदे होई खाली
कई शुहगुना का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगा ई
ये कौन है ? मुझे भी तो बताऊ भाई ... आज
पराशर गौर
कनाडा १५ सितम्बर २००८ शाम ४ बजे
,
3 comments:
the innocent are victims to heartless ideals of faith !!!
WHY?
ये यहाँ भी है
बहुत मार्मिक रचना है
पराशर जी की कविता बड़ी ही मार्मिक है। प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
Post a Comment