Monday, February 25, 2008

दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

पंख अब हम कहाँ फैलायें
आसमां क्यों सिकुड़ सा गया है
सूरज तो रोज ही उगता है
दिन के उजाले कम क्यों हो गये हैं।

आँखों में है धूल और पसीना
मंजिल धुँधली नजर आ रही है
अभी तो दिन ढला ही नहीं
साये क्यों लंबे हो गये हैं।

अंधेरों की अब आदत पड़ सी गई है
ऑखें चुंधियाती हैं शीतल चांदनी में
बियाबां की डरावनी शक्लें हैं
चेहरे ही गुम क्यों हो गये हैं।

जमीं पे पाया औ यहीं है खोया
क्यों ढूढते हैं हम अब आसमां में
हम वही हैं कारवां भी वही है
पर आदमी अब कम क्यों हो गये हैं।
-मथुरा कलौनी

6 comments:

Reetesh Gupta said...

बढ़िया लगी आपकी कविताई ...

मथुरा कलौनी said...

रीतेश जी धन्‍यवाद
मथुरा कलौनी

Tys on Ice said...

i really really want to understand this...iam going to irritate mads to translate for me...

u r going to get me to study hindi at this old age :)

मथुरा कलौनी said...

Good for you. You don't have to remind me of my age. And remember anyone can read English. Only literate read Hindi :)

Madhumita said...

Nicely written ... and I have a faint idea on what may have inspired it :)

मथुरा कलौनी said...

what?