Friday, December 5, 2008
गोल्डक्लास में फैशन
मैंने जब सिनेमा देखना आरंभ किया था तो कलकत्ते के एक फटीचर हाल में पर्दे के एकदम सामने की टिकट पाँच आने में आती थी। स्कूल गोल कर कितनी पिक्चरें वहॉं देखी थीं! लड़कपन पार कर जब कालेज में दाखिला लिया तो अपने को अपग्रेड किया तथा बालकनी में पिक्चर देखना आरंभ किया। आजकल मल्टीप्लेक्स का जमाना है। डेढ़ सौ रुपये दे कर पिक्चर देखनी पड़ती है। यहॉं तक तो ठीक है। पर आज तक कोई मुझे पॉंच सौ रुपये दे कर गोल्डक्लास मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने के लिये मजबूर नहीं कर सका। पर जब उपहार स्वरूप पॉच-पॉंच सौ की दो टिकटें मिलीं तो सोचा चलो यह अनुभव भी सही।
तो साहब हम भी सपत्नीक गोल्डक्लास में पिक्चर देखने पहुँचे। हाल में लोग बहुत कम थे जो स्वाभाविक ही है। लोग इतनी मँहंगी टिकट ले कर क्यों सिनेमा देखने लगे जब कि बगल के हाल में वही पिक्चर डेढ़ सौ रुपयों में देखी जा सकती है।
हॉल में सीटें इतनी बड़ी कि एक सीट में दो समा जॉंय। सीट में बैठना तो असंभव था। या तो आप अधलेटे बैठिये या पूरे ही लेट जाइये। सीट में कंबल भी रखा हुआ था। कई लोग तो कंबल ओढ़ कर लेट गये थे। चलो पिक्चर बोर हुई तो आप तीन घंटे की नींद ले सकते हैं।
अब लेट कर पर्दे की ओर देखा तो पाया कि पर्दे का निचला हिस्सा तो आराम से दिखता है पर पर्दे का ऊपर का हिस्सा देखने के लिये सिर को पीछे की ओर करना पड़ता है जो गरदन के लिये कड़ा ही कष्टप्रद कोंण है। हॉल की सीटें श्रीमती जी को बहुत हास्यास्पद लग रही थीं। हँसते-हँसते उनका बुरा हाल हो रहा था। पिक्चर समाप्त होने पर हमें एक दूसरे को सहारा देकर सीट से उठाना पड़ा था। वे प्रसन्न थीं कि चलो इस अवांछनीय अनुभव पर कम से कम टिकटों पर अपना पैसा नहीं खर्च करना पड़ा।
वहॉं हाल में ही खाने पीने की भी व्यवस्था है। हरएक सीट में एक-एक साइड टेबल लगा था जिसमें मीनू कार्ड भी रखा हुआ था। पत्नी से सलाहमशवरा कर दो सैंडविच और एक बोतल पानी का आर्डर दिया। हॉल के धुँधले प्रकाश में दाम ठीक से दिखे नहीं। बिल आया पॉंचसौ एकतीस रुपये! पॉंच सौ एकतीस रुपये किस बात के! न स्वाद, न सर्विस, न वातावरण। उनकी हँसी एक गंभीर सोचमुद्रा में बदल गई।
अब आते हैं पिक्चर पर। पिक्चर थी फैशन। हमदोनों को पिक्चर बहुत पसंद आई। चलो कम से कम पिक्चर अच्छी लगी। शाम पूरी बेकार नहीं गई। पिक्चर अच्छी तो थी पर एक बात कहना चाहूँगा कि पूरी पिक्चर में कई सीन ऐसे थे जिनमें युवतियॉं बहुत कम वस्त्रों में रैंप पर इठला रही थीं। और लगभग पूरी पिक्चर में कैमरे का फोकस नीचे ही रहा था। अब आप अंदाज लगा सकते हैं कि मैं कैसे अनुभव से गुजरा। सीट में अधलेटा बैठने के बाद वैसे ही पर्दे के ऊपरी भाग को देखने में कष्ट हो रहा था ऊपर से पूरी पिक्चर में कैमरे का लो-ऐंगल! नहीं-नहीं मैं आपत्ति नहीं कर रहा हूँ मैं तो केवल अपना अनुभव आपके साथ बॉंट रहा हूँ।
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4 comments:
apne rochak anubhav ko hum logo ke saath baantne ke liye aapka bahut shukriya...
http://binnewslive.com
aapka anubav bahut hi hat-ke raha... ab lagta hai, aap kabhi bhi gold class mein movie dekhne ki galti nahi karenge...;)
सुना था इसके बारे में कि ये है ही अय्याशी के लिये, आज आपका अनुभव भी पढ लिया ।
अच्छा करा आपने बता दिया..वैसे तो अभी तक सोचा नही था गोल्डकलास में जाने का पर अब आगे भी नही सोचेंगे
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