Sunday, July 13, 2008

शब्दशिल्पी हूँ मैं

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जन्‍मशती पर बंगलौर में आयोजित एक संगोष्‍ठी में जाने का अवसर मिला। संगोष्‍ठी में वक्‍ताओं से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवनदर्शन और उनकी रचनाओं पर विमर्श सुन कर मैं कुछ अंतर्मुखी हो गया और यह कविता बन पड़ी -

शब्दशिल्पी हूँ मैं
शब्दों को सँवार कर सुंदर बना दिया है मैंने
शब्दों के पारखी हैं आप बोली लगाइये
शब्दों को बाजार में खड़ा कर दिया है


शब्दशिल्पी हूँ मैं
शब्द मंडराते हैं मेरे मन मस्तिष्क पर
सुनामी के कगार पर रेत का किला
ऐसा ही कुछ तो निरर्थक रच दिया है मेंने


शब्दशिल्पी हूँ मैं
पर शब्दों के जाल में स्वयं उलझ गया हूँ
आज बदला है परिवेश, बदल गये अर्थ हैं
निस्प्राण हैं रचनाएँ शब्द हो गये व्यर्थ हैं

कोनों में बज उठी है दुंदुभी
तू शब्दशिल्पी था कभी
समय के साथ तू बह गया
तेरा पांडित्य पीछे रह गया


जो तू शब्दशिल्पी है तो
समय के पत्थर पर शब्दों में सान लगा तू।
शब्दों की पैनी धार से शब्दजाल काट तू।
बेड़ियों को काट बाहर निकल तू


शब्दों में नये प्राण फूँक तू
जो शब्दशिल्पी है तू, जो शब्दधर है तू
तो अब तो कुछ नया सोच तू
- मथुरा कलौनी

9 comments:

अबरार अहमद said...

जो तू शब्दशिल्पी है तो
समय के पत्थर पर शब्दों में सान लगा तू।
शब्दों की पैनी धार से शब्दजाल काट तू।
बेड़ियों को काट बाहर निकल तू

बहुत सुंदर।

Suvichar said...

बहुत सुंदर

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

waah !!! bahut khoob...badhayee...

Keerti Vaidya said...

जो तू शब्दशिल्पी है तो
समय के पत्थर पर शब्दों में सान लगा तू।
शब्दों की पैनी धार से शब्दजाल काट तू।
बेड़ियों को काट बाहर निकल तू

waise to puri kavita bahut khoobsurat likhi gayi hai par mujhey yeh panktiya bahut umda lagi....

Hem Pant said...

कविता बहुत अच्छी लगी. अन्तिम पंक्तियों में नयी सोच विकसित करने का आह्वान दिल को छू गया.

~nm said...

बहुत सुंदर.

इस बार बहुत समय बाद आपकी रचना पढ़ने तो मिली.

मथुरा कलौनी said...

प्रोत्‍साहन के लिये आप सब को बहुत बहुत धन्‍यवाद

@~nm कई कारणों से काव्‍यरचना से विमुख रहा। मुख्‍य कारण है आलस। :)

Unknown said...

excellent sir

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत उम्दा और बेहतरीन रचना. आनन्द आ गया. बधाई.