Tuesday, April 29, 2008

कब तक रहें कुँवारे

हमारा पिछला नाटक 'जो पीछे रह जाते हैं ' बहुत गंभीर था। अब ऐसे नाटक की मांग हुई जो हँसाए गुदगुदाए और दर्शकों का भर पूर मनोरंजन करे, यानी नाटक में दर्शकों को घर लेजाने के लिए कोई संदेश न हो।
मैं मंच पर खड़े होकर दुनिया को हिला देने वाला भाषण शायद न दे पाऊँ। महफिल में सड़े हुए जोक सुना कर लोगों को न हँसा पाऊँ या कविता के नाम पर बेतुकी तुकबंदी न कर पाऊँ पर मेरे हाथ्‍ा में कलम दे दीजिए, कुछ न कुछ बन ही जाता है।जो उतना अग्राह्य भी नहीं होता है। लिखना आरंभ किया तो नाटक बन ही गया। नाम है ' कब तक रहें कुँवारे ' । नाटक का पाठ हुआ और जब लोग हँसते हँसते लोटपोट हो गए तो बड़ा आनंद आया। सभी कहने लगे चलो इसका मंचन करते हैं। यहीं से मेरी व्‍यथा आरंभ होती है।
चलो इसका मंचन करते हैं का अर्थ हुआ कि मैं निर्देशन के साथ साथ नाटक का आदि से अंत तक निर्माण भी देखूँ। साथ ही कलाकरों के नखरे भी सहूँ।
मुझसे 'नहीं' कहते नहीं बनता। फिर अपना लिखा नाटक का अपने ही निर्देशन में मंचित हो तो क्‍या बात है। मोह तो रहता ही है। चने के झाड़ में चढाने वालों की भी कमी नहीं है।
'कब तक रहें कुँवारे' एक प्रहसन है। इसमें नाच है और कव्‍वाली भी है। यानी काफी मेहनत है। हॉल बुक हो गया है। नाटक का मंचन 20 जून को होना है। जब रिहर्सल का टाइमटेबल बनाया तो पता चला 12 कलाकारों में 5 एक दम नये है जो पहली बार मंच में उतरेंगे। ऊपर से कोई सोमवार को नहीं आ सकता, किसी की मंगलवार को टेलीकॉनफ्रेंस रहती है, कोई बुधवार को संगीत सीखने जाता है। एक की बुहस्‍पति को वीडियोकॉनफ्रेंस रहती है इत्‍यादि। इतवार के बारे में कइयों का कहना हे कि हफ्ते में एक दिन तो मिलता है उस दिन भी कोई नाटक की रिहर्सल करता है! इन सब व्‍याधा-व्‍यवधानों से आगे बढ़ो तो आधे कलाकार समय पर रिहर्सल पर नहीं पहुँचते। देर से आने के मैंने इतने बहाने सुने हैं कि अब कोई सच भी कहे तो विश्‍वास नहीं होता।
अब मैं बहुत गंभीर प्रकार से इस विषय पर सोच रहा हूँ कि मैं नाटक क्‍यों करता हूँ। हजार लोगों का एहसान ले कर, अपने परिवार की शांति भंग कर, अपनी गॉंठ से पैसे गंवा कर नाटक करने का क्‍या तुक है? लोग नशीली दवाइयों की लत छुड़ाने के लिए नर्सिंग होम में भर्ती होते है। क्‍या नाटको की लत छुड़ाने के लिए ऐसी व्‍यवस्‍था है? आप किसी ऐसे मनोरोग चिकित्‍सक को जानते हैं?

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