सरल शब्दों में कहें तो सभी जन सभी कार्यों में
समान रूप से दक्ष नहीं हो सकते। ऐसा मानें तो जातियाँ किसी ने बनाई नहीं बल्कि व्यक्तियों
की रुचि के अनुसार समाज की आवश्यकता और श्रम विभाजन के आधार पर जातियाँ बनी होंगीं।
यहाँ जाति का अर्थ जातिवाद में प्रयुक्त जाति से भिन्न है। यहाँ जाति का अर्थ पेशे
से है जैसे सुनार, लोहार, वैद्य इत्यादि। आरंभ का सरल वर्गीकरण पारिवारिक पेशे में बदला।
बेटा अपने पिता की देखा-देखी उसका पेशा अपनाने लगा। फलस्वरूप व्यवसायिक परंपरा का प्रादुर्भाव
हुआ। परिवार अपने चुने हुए कार्यक्षेत्र में निपुण होते गये। पेशा परिवार की जाति बन
गई।
जाति बनी तो जातिवाद
आया। ऊँच-नीच की भावना आई। शारीरिक श्रम करने वालों को निम्न स्तर का समझने की भावना
आ गई। ताकत और सत्ता का खेल आरंभ हुआ। ऊँचे
तबके के लोग प्रगति करते गये। उनकी मानसिक संकीर्णता के शिकार बने शारीरिक श्रम करने
वाले लोग। वे दलित कहलाये। दलितों का प्रगति – पथ अमीरों की ड्योढ़ी तक ही पहुँचने लगा।
वोट बैंक की राजनीति
आई। दलित नेता आए जो दलितों का राजनीति में शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करने लगे।
देखते-न-देखते वे सवर्णों से अधिक शक्तिशाली हो गये। अब स्थिति यह है कि दलित नेता
नये ब्राह्मण बन गये हैं और ब्राह्मण नये दलित। समाज हैव्स और हैव-नॉट
में बदल रहा है। जिनके पास है वे अपने पास जो है उसे बढ़ाने में लगे हैं। जिनके पास
नहीं है, वे खुरच-खुरच कर जीने के साधन जुटा रहे हैं।
एक वर्गहीन समाज की रचना तो केवल कल्पना
है। पर आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी में
जाति-व्यवस्था का
प्रभाव कम होता नजर आता है। पर यह अभी बड़े शहरों में ही कहीं दिखाई पड़ता है जो नगण्य
है। जो दिखाई पड़ता है वह भी चर्चाओं में ही
अधिक है, व्यवहार में बहुत कम। अधिकांश भारत जाति प्रथा की जकड़ में है।
और यह जकड़ ढीली पड़ती नहीं दिखाई पड़ती।
अब हाल यह है कि जाति-प्रथा
एक ऐसी दुधारू गाय हो गई है जिसको सभी दुहने में लगे हुए हैं। इस सिस्टम को बरकरार
रखने में सभी के भाग कुछ-न-कुछ छीछड़े आ ही जाते हैं।
मथुरा कलौनी
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