Sunday, July 12, 2009

सब कुछ ठीक ठाक है - दूसरा और अंतिम भाग

चौथे दिन चंद्रिका ने मुझे विक्टोरिया मेमोरियल बुलाया। अनिच्छित मन से, और भारी कदमो से वहाँ पहुँचा। चंद्रिका पहले ही पहुँच चुकी थी। गंभीर तो वह सदा ही रहती थी। उस समय साधारण से अधिक गंभीर लग रही थी।

'प्रताप मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ पर तुम्हें दुख होगा। इसलिये समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे कहूँ।'

'बस कह डालो।'

'तुम मेरे मित्र हो..।'

'इस भूमिका की कोई आवश्यकता नहीं है चंद्रिका। बात क्या है?'

'तुम्हें दुख होगा प्रताप।'

'बात तो बताओ।'

'उस दिन जब तुमने शादी की बात की थी तब से मैं इस बारे में गंभीरता से सोच रही हूँ। प्रताप, हम दोनों की प्रकृति एकदम भिन्न है। यह शादी करके हम भूल ही करेंगे। क्या.. क्या हम दोनों मित्र ही नहीं रह सकते'

मैं भी तो यही चाहता था। चलो यह तो अच्छा हुआ कि चंद्रिका भी नहीं चाहती कि हम दोनों की शादी हो। मुझे सोच में पड़ा देख कर चंद्रिका ने कहा था, 'मुझे मालूम है कि तुम्हें दुख होगा... पर...'

'नहीं नहीं चंद्रिका तुम नहीं चाहती तो यह शादी नहीं होगी।' मैंने कहा था। मैंने मौके का एक फिल्मी डायलॉग भी जड़ दिया था, ' तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है।'

चंद्रिका इस भ्रम में थी कि उसकी ना से मुझे बहुत दुख पहुँचा है। मैंने उसके इस भ्रम को बने रहने दिया था। हाँ, उसकी ना ने मेरे अहम् को ठेस अवश्य पहुँचाई थी। जो हो, हम दोनों अनचाहे बंधन में बँधने से बच गये थे।
घर में शादी की बात उठी तो मैंने चंद्रिका के साथ अपनी इस संबंध में हुई बातों का अक्षरश: वर्णन कर दिया। दानों घरों में उठी आँधी का सामना चंद्रिका को अकेले करने दिया। बाद में पिताजी मुझे दोषी ठहराने लगे थे। पर उस समय तो आँधी निकल गई थी।


इस घटना को चार साल हो गये हैं। चंद्रिका और मेरा मिलना वैसे ही कम हो गया था। इस घटना के बाद तो और भी कम हो गया था। बस तीन या चार बार ही हमलोग मिल पाये थे वह भी बहुत औपचारिक रूप से। अब तक न चंद्रिका की शादी हुई थी न मेरी। मेरी शादी इसलिये नहीं हुई थी कि एक तो मेरा ध्यान और कई विषयों में बँट गया था और दूसरे मेरे दायरे में जितनी लड़कियाँ आईं किसी में कुछ ऐसा नहीं देखा कि शादी के लिए हायतौबा मचाता। चंद्रिका की शादी क्यों नहीं हुई मुझे नहीं मालूम। उसकी भी शायद मेरी जैसी स्थिति हो।




चंदनी में पहले जब भी आया बस दो दिनों से अधिक नहीं रुका था। इस बार माँ और पिताजी की शिकायत दूर करने के लिये मैं लंबी छुट्टी ले कर घर आया था। तीसरे दिन ही मुझे लगा कि चंदनी में समय बिताना बहुत ही टेढ़ी खीर हे। यहाँ आने से पहले समय कैसे बिताया जाता है इसका बाकायदा प्रशिक्षण ले लेना चाहिये। पहला दिन तो मातापिता से मिलने में बिताया। दूसरे दिन चंद्रिका के पिता कृष्णकुमार जी आदि से मिला। तीसरे दिन बस सामने सड़क और पीछे रेललाइन, इन दोनों को छोड़ कर मनोरंजन का और साधन नजर नहीं आया। शाम को कृष्णकुमार जी ने बताया कि चंद्रिका भी चंदनी आने वाली है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उस घटना के बाद मुझे चंद्रिका का सामना करने में थोड़ी झिझक होती है। हालाँकि शादी के लिये मना चंद्रिका ने किया था पर मुझमें एक ऐसी अपराध भावना आ गई है जो मुझे सहज नहीं होने देती है। तो आप पूछ सकते हें कि चंद्रिका के आने का समाचार सुन कर मुझे प्रसन्नता क्यों हुई। आप चंदनी में तीन चार दिन रहिये तो आपको उत्तर स्वयं मिल जायेगा। इस बोरियत के सामने कोई भी अपराध भावना नहीं ठहर सकती। फिर चंद्रिका के साथ वर्तमान जैसा भी हो बचपन तो उसी के साथ कटा था।

उसको लेने बस अड्डे मैं ही गया था। मुझे देख कर उसने आश्चर्य प्रकट किया। मुस्कराई। पर प्रसन्न हुई या नहीं मैं नहीं कह पाया। रास्ते में केवल औपचारिक बातें ही हुईं। उसके घर की, मेरे घर की, बस। अगले दिन सुबह सुबह ही मैं उसके घर पहुँच गया। वह कोई पत्रिका पढ़ रही थी। मुझे देख कर उसने पत्रिका रख दी।

'अकेली हो ?' मैंने पूछा। घर में कोई नहीं दिख रहा था।

'हाँ माँ पता नहीं कहाँ गई है। पिताजी हाट गये हैं।' उसने कहा।

'क्या करने का इरादा है आज तुम्हारा।'

'कुछ विशेष नहीं।'

'बड़ी बोर जगह है यह।'

'यहाँ शहर का वातावरण खोजना बेवकूफी है। मैं यहाँ अपने लिखने पढ़ने का पूरा सामान ले कर आई हूँ।

हर बात का उसके पास काट था, हमेशा की तरह। मजे की बात यह कि वह बात बात में मुझे बेवकुफ भी कह गई। खैर मैंने उसकी बात का बुरा नहीं माना। इस तरह की चोटें तो हमदोनों के बीच चलती रहती थीं। और मैंने चाहा भी यही है कि हमदोनों के बीच का समीकरण न बदले।

'मुझे नहीं मालूम था कि तुम यहाँ मिलोगे नहीं तो मैं तुम्हारे लिये भी कुछ पुस्तकें उठा लाती।' उसने कहा।

'अच्छा किया नहीं लाई। तुम्हारी दी हुई पुस्तकें मेरे पास बहुत हैं। उन्हें पढ़ने के लिये रुचि उत्पन्न करना मेरे लिये कठिन कार्य है।'

'मुझे तुम्हारी रुचि मालूम है। मैं सूरज के उपन्यासों की बात कर रही थी।' उसके होंठों में हल्की स्मित रेखा खिंची हुई थी। मेरी और उसकी आँखें चार हुईं तो दोनों ठठा कर हँस पड़े।

वह हँसी हम दोनों के बीच सहजता ले आई। थोड़ी देर और बैठ कर मैं वहाँ से चला आया। शाम हुई तो मैंने छत पर एक बड़ा सा गद्दा और गावतकिये लगा दिये। वहीं गद्दे में अधलेटा हो कर मैं आसपास के दृश्य का आनंद उठाने लगा। चांदनी छिटक आई। दूर घरों में बत्तियाँ टिमटिमाने लगीं। माँ ओर पिताजी भी वहीं चले आये और हमलोग पारिवारिक बातचीत में व्यस्त हो गये। माँ ने मेरी शादी का विषय उठाना चाहा पर मैंने उठाने नहीं दिया। नीचे आहट हुई। माँ देखने के लिये नीचे उतरी और वहीं से आवाज दी कि चंद्रिका आई है। मैंने कहा उसे ऊपर ही भेज दो। तुमलोग बैठो कह कर पिताजी भी नीचे चले गये। मैं चंद्रिका के बारे में सोचने लगा। बड़ी पढ़ाकू बनती है, कितना पढ़ेगी आखिर।


चंद्रिका छत पर आई। सफेद सलवार कमीज में थी, डिटर्जेंट टिकिया का विज्ञापन बनी हुई। भली लग रही थी। मैंने बैठने के लिये कहा। वह पास ही एक गावतकिया लगा कर घुटने मोड़ कर बैठ गई। बहुत देर तक न वह बोली और न मैं बोला। जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो मैंने उसकी ओर देखा। वह मुझे ही निहार रही थी।

जगह का नाम चंदनी हो, स्थान एकांत छत हो, चंद्रमा की चाँदनी छिटकी हुई हो, लड़की का नाम भी चंद्रिका हो और वह चाँदनी से उजले कपड़े पहने हुए हो, ऊपर से बचपन की मित्र भी हो तो किसी घटन-अघटन की आशंका करनी चाहिये।
पहले हम दोनों की टकटकी बँधी और फिर पलक झपकते ही हम एक दूसरे की बाँहों में समा गये। आलिंगन के आवेश में साँसें अवरुद्ध होने लगीं। भावावेश के बावजूद मैंने पाया कि मेरा चेतन मस्तिष्क काम कर रहा है और इस प्रश्न का हल ढ़ूँढ़ रहा है कि जब हम दोनों के बीच प्रणय नहीं है तो ऐसा क्या अव्यक्त रह गया है जिसकी अभिव्यक्ति इस समय इस आलिंगनपास से हो रही है। आवेश की अवधि समाप्त हुई, चंद्रिका तीव्रता से उठ कर छत की मुँडेर के पास चली गई। इसी समय अँधेरे को चीरती हुई रेल गाड़ी आई और एक झाँंकी दिखला कर चली गई। फिर चुप्पी। मैंने पुकारा 'चंद्रिका', पर वह बिना उत्तर दिये वहाँ से चली गई। मैं उठ कर मुँडेर के पास गया ओर अपने घर की ओर जाते हुये उसे देखता रहा।

मैं सोचने लगा कि यह मैंने क्या कर डाला। चंद्रिका को भावना में बहने का अधिकार है। एक तो वह लड़की है, दूसरे वह यह धारणा पाले हुई है कि शादी के लिये मना कर उसने मुझे बहुत दुख पहुँचाया है, तीसरे अकेलेपन से शायद वह बहुत घबड़ा गई हो और चौथे शायद बचपन का प्यार उमड़ आया हो। उसके लिये इनमें से कोई भी एक कारण भावना में बहने के लिये पर्याप्त है। पर मुझे तो होश में रहना चाहिये था। क्या पता यह क्षणिक आवेश मुझे महँगा पड़े। अब यदि चंद्रिका शादी का प्रस्ताव रखे तो मैं कभी मना नहीं कर पाऊँगा।
देर रात तक मैं सो नहीं पाया। सुबह सुबह आँख लगी तो सपने में क्या देखता हूँ कि चंद्रिका एक बेंत गोद में रखे आराम कुर्सी में डोल रही है और मुझसे मनोविज्ञान की एक मोटी पुस्तक के अध्याय तीन से प्रश्न पूछ रही है। उत्तर सही न होने पर दो बेंत मार पड़ेगी।

घबड़ा कर उठ बैठा। अपने सपने पर मुझे हँसी आ गई।
आज मेरा मन नहीं किया कि मैं चंद्रिका का सामना करूँ। इसलिये शारदा नदी में मछली पकड़ने का प्रोग्राम बनाया। इस उद्देश्य से मैं पिताजी का फिशिंग राड निकाल कर ठीक कर रहा था कि वहीं चंद्रिका आ पहुँची। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में तैरते लाल डोरों से पता चला कि वह रात में ठीक से सोई नहीं। आते ही उसने कहा, 'प्रताप चलो कहीं बाहर चलते हैं।'

'मैं शारदा में मछली पकड़ने जा रहा हूँ, वहाँ चलना है ?'
चंद्रिका ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
नदी किनारे उचित जगह देख कर मैंने दरी बिछाई। चंद्रिका को बैठने के लिये कहा। मैंने काँटे में चारा फँसाया। लाइन पानी में डाली और रॉड लेकर चंद्रिका के पास बैठ गया। मैं क्या देखता हूँ कि चंद्रिका अनमनी सी बैठी है जैसे उसके मन में कोई बोझ हो। उसके माथे में पसीने की बूँदें हैं। पैदल चलने के श्रम से साँस थोड़ी तेज है। उसको उस हालत में देख कर मैंने निर्णय लिया कि चाहे कुछ हो जाय मैं इस लड़की को कभी दुख नहीं पहुँचाऊँगा। मेरे ऊपर इतना हक तो उसका बनता ही है।

'प्रताप, कल के अपने व्यवहार के लिये मैं शर्मिन्दा हूँ।' उसने नदी की ओर देखते हुये कहा।

'गलती मेरी भी है।' मैंने कहा।

इसके बाद हमदोनों बहुत देर तक चुप रहे। वह अपने ख्यालों में और मैं अपने। एक छोटी मछली हाथ आई। मैंने चारा फँसा कर लाइन को फिर पानी में डाल दिया।

'प्रताप, इतना कष्ट करके मछली मिली भी तो इतनी छोटी। हाट से क्यों नहीं खरीद लेते। पिता जी कह रहे थे कि मछलियाँ बहुत सस्ती हैं यहाँ।'

'तुम बोर हो रही हो ? '

' नहीं तो।'

'बाजार से तो हर कोई खरीद लेता हैे पर अपनी पकड़ी हुई मछली का स्वाद ही अलग होता है। कहने का अर्थ यह कि जो चीज बाजार में आसानी से मिल जाती हो उसकी कद्र नहीं होती। फिर एकांत चाहिये हो या अपने में ही डूबे रहने की इच्छा हो तो इससे अच्छी दूसरी जगह नहीं हो सकती।'

'शायद तुम ठीक कह रही हो।'

'तुम्हें तो मालूम होना चाहिये। तुम मनोविज्ञान आदि का बहुत अध्ययन करती हो।'

उत्तर में चंद्रिका ने कुछ नहीं कहा। केवल पानी की ओर देखती रही।

'कल से तुम में कुछ परिवर्तन देख रहा हूँ।'

'कैसा परिवर्तन ? कल की बात कर रहे हो?'

'नहीं।'

'फिर ? '

'तुम्हें मालूम है मैं क्या कह रहा हूँ।'

'शायद। तुम ठीक ही कह रहे हो। कल मेरे अंदर का छुपा हुआ कुछ बाहर आ गया था। हर समय तो तन के नहीं खड़ा रहा जा सकता है न प्रताप।'

'हाँ यही बात है। मुझे कभी अच्छी नहीं लगी तुम्हारी यह बात। मैं तुम्हारा बालसखा हूँ। मेरे सामने तनने की तुमको क्या आवश्यकता आन पड़ी! अरे मेरे सामने ढीली नहीं होओगी तो किसके सामने होओगी ? '

फिर वही चुप्पी।

'मुझसे शादी करोगी चंद्रिका?' अपने इस प्रश्न पर मैं स्वयं ही चौंक पड़ा। पता नहीं मन के किस कोने में दबी हुई थी यह भावना जो अभी चंद्रिका के सामने शब्दों में परिणत हुई।

'हाँ प्रताप।' चंद्रिका ने कहा। वह मेरे पास खिसक आई और मेरे कंधे में सिर रख दिया।

उसके उत्तर से अधिक आश्चर्य नहीं हुआ मुझे। प्रश्न पूछने के बाद मैं जैसी आशा कर रहा था वैसा ही हुआ। मैंने चंद्रिका को अपनी बाईं बॉह के घेरे में ले लिया।

हम मित्र से पति-पत्नी बने। चंद्रिका अब भी अध्ययनशील है। अब भी मोटी मोटी किताबें पढ़ती है और मेरे अध्ययनशील न होने पर मुझे टोकती रहती है। पर सब कुछ ठीक ठाक है।

समाप्‍त


लेखक उवाच

एक जमाना था जब हम जवाँ थे, एक जमाना यह है जब कहना पड़ रहा है कि हम अब भी जवाँ हैं। फर्क इतना है कि तब दिल से सोचते थे और अब थोड़ा बहुत दिमाग से भी सोच लेते हैं।
प्यार तब भी अपरिभाषित था और आज भी अपरिभाषित ही है। इसमें दिमागी सोच कम ही काम करती है।

ग़ालिब कह गये हैं -
'यह आग का दरिया है..'

सामरसेट माम कह गये हैं
'प्यार के मामले में तटस्थ मत रहो..'

प्यार में दो पहलुओं में मैंने दो कहानियाँ लिखी हैं। दोनों कहानियाँ काल्पनिक हैं पर कपोल काल्पनिक नहीं। एक तो अभी आपने पढ़ी। दूसरी कुछ दिनों बाद। टंकित करने का झमेला है।

मथुरा कलौनी

Thursday, July 9, 2009

सब कुछ ठीक ठाक है

अवकाश प्राप्त करने के बाद पिताजी गाँव चंदनी में बस गये हैं। बीस बीघा जमीन है। जमीन के बीचोबीच आरामदेह और सुरुचिपूर्ण मकान बनाया है। दाहिने और बाएँ पड़ोस में उनके मित्र बसे हुए हैं। यारदोस्त अच्छे हें। पेन्शन है। बैंक में अच्छा बैलेन्स है। मतलब पिताजी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हाँ, एक दुख उनको अवश्य है। उन्हीं के शब्दों में उनका इकलौता लड़का नालायक निकला। यह बात और हैे कि मैं कितना ही लायक क्यों न बनूँ उनकी दृष्टि में सदा नालायक ही रहूँगा। मुझे नालायक सिद्ध करने के लिए उनके पास सैंकड़ों उदाहरण हैं। पर एक बात वह विशेष जोर दे कर कहते हैं, वह यह कि चंद्रिका जैसी रूपवान और बुद्धिवान लड़की से मैंने शादी नहीं की।

रूप और बुद्धि के साथ चंद्रिका में एक और गुण यह है कि वह पिता जी के अभिन्न मित्र कृष्णकुमार जी की सुपुत्री है। चंदनी में दाहिने पड़ोस में कृष्णकुमार जी ही रहते हैं। कलकत्ते में भी हमारे दोनों परिवार साथ ही रहते थे। दोनों परिवारों के बड़े चाहते थे कि चंद्रिका और मेरी शादी हो जाय। छुटपन में तो यह एक दूसरे को चिढ़ाने का विषय था। बड़े हुए तो वह अपने रास्ते लगी और मैं अपने। वह अपने पहले से ही बड़े मस्तिष्क में अधिक से अधिक ज्ञान भरने की चिंता में लगी और मैं रोजी रोटी की चिंता में। इस दौर हमारा मिलना भी बहुत कम हो गया था।

मुझे अच्छी नौकरी मिल गई और जीवन स्थिर हुआ तो घरवालों ने तिकतिक लगानी शुरू की कि बच्चू अब शादी कर लो, चंद्रिका तुम्हारे लिए बैठी नहीं रहेगी, इत्यादि। तब मैंने सोचा हर्ज ही क्या है। विचार करने पर यह विचार मुझे पसंद आने लगा कि मेरी शादी अब हो ही जानी चाहिये। शुभकार्य आरंभ करने के लिए मैंने चंद्रिका को फोन किया। चूँकि मामला व्यक्तिगत था इसलिए घर से दूर विक्टोरिया मेमोरियल में मिलने का प्लान बनाया।
ठीक समय पर चंद्रिका आई। उसे देख कर मुझे लगा कि इस बीच हम दोनों कितने कम मिले थे। सबसे पहली चीज मैंने लक्ष्य की वह चंद्रिका का चश्मा था।

'तुमने चश्मा कब से लगाना शुरू कर दिया?'

'बहुत दिन हो गए।'

'बताया भी नहीं!'

'इसमें बताने लायक कौन सी बात है!'

यह सचमुच बताने योग्य कोई बात नहीं थी। मैंने चंद्रिका को बुला तो लिया था पर असल विषय को छेड़ने में मुझे घबराहट हो रहीं थी। हालाँकि पहले कोई भी ऐसी बात नहीं होती थी जिस पर मैं चंद्रिका से सहजता से बात नहीं कर सकता था। युवावस्था ने विशेष कर चंद्रिका की युवावस्था ने हमारे बीच की सहजता समाप्त कर दी थी। फिर पता नहीं क्यों वह चश्मा बहुत आड़े आ रहा था।

'तुम्हारी परीक्षा कब है?' मैंने पूछा था।

'कौन सी परीक्षा?'

'एम. ए. की।'

'कहॉ रहते हो? एम.ए. तो मैंने पिछले साल ही पास कर लिया था।'

'पर तुम्हारे पिता जी तो कह रहे थे कि तुम अध्ययन में बहुत व्यस्त रहती हो।'

'हाँ आजकल मैं जीवविज्ञान पर व्यक्तिगत रूप से अध्ययन कर रही हूँ।'

'एम.ए. में तो तुम्हारा विषय मनोविज्ञान था।'

'हाँ। '

'तो अब जीवविज्ञान क्यों?'

'जीव विज्ञान क्यों नहीं?' उसने अपने चश्मों के पीछे से विचित्र भाव से मुझे देखा था। मानो वह अपने जीवविज्ञान के ज्ञान का प्रयोग मुझ पर कर रही हो।

'तुम क्या कर रहे हो आजकल?' अब उसके पूछने की बारी थी।

'नौकरी कर रहा हूँ। मैंने कुछ दिन पहले तुमको बताया तो था।'

'हाँ, मुझे मालूम है। मेरे कहने का मतलब था नौकरी के अलावा क्या कर रहे हो?'

'नौकरी के अलावा!'

'मेरा मतलब अध्ययन आदि था।'

'ओ अध्ययन! उससे तो मैंने छुटकारा पा लिया है।'

मैंने उसे अपनी ओर फिर उसी विचित्र भाव से देखते हुए पाया था। तब मुझे याद आया कि अध्ययन पर उसके विचार क्या हैं। 'खाली समय में कुछ पढ़ लेता हूँ।' मैंने बड़बड़ा कर कहा था।

'आजकल क्या पढ़ रहे हो?'

'आजकल सूरज का एक उपन्यास...'

'सूरज?'

'मेरा मतलब था सूर्यकांत त्रिपाठी निराला।' मैंने जल्दी से कहा था। इससे पहले कि अध्ययन पर हमारी बहस छिड़े मैंने असल मुद्दे में बात कर लेना उचित समझा था।

'चंद्रिका।'

'बोलो।'

'मैंने तुम्हें एक विशेष बात करने के लिए बुलाया है।'

'मुझे मालूम है।'

'मालूम है! कैसे मालूम है?'

'सीधी सी बात है प्रताप। तुमने मुझे घर न बुला कर इतनी दूर यहाँ बुलाया है। और आजकल हम दोनों के घरों में में जो बात हो रही है उसे छोड़ कर और क्या बात हो सकती है?'

'चलो तुमने बात आसान कर दी। तो क्या कहती हो, हम अपने माँ बाप को प्रसन्न कर दें?'

मेरी बात सुन कर वह खिलखिला कर हँसने लगी थी। मुझे बुरा लगा था। 'इसमें हँसने की कौन की बात है?' मैंने पूछा था।

'हँसने की ही तो बात है। ऐसा कह कर शायद ही किसी ने आज तक किसी लड़की का हाथ माँगा होगा।'

'तो क्या हुआ, थोड़ा अनूठापन ही सही।'

'प्रताप क्या तुम अपने माँबाप को प्रसन्न करने के लिए शादी कर रहे हो?' अब वह थोेड़ी संजीदा हो गई थी।

'मैं भी प्रसन्न होऊँगा। अब यह भी बताना पड़ेगा?'

इसके बाद वह थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोली थी।

'क्या सोच रही हो?' मैंने पूछा था।

'सोच रही थी कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा।'

'कैसा रहेगा माने? अच्छा रहेगा।'

'तुम अध्ययन में विश्वास नहीं रखते हो।' उसके लहजे में शिकायत थी।

'तो क्या हुआ। आवश्यकता पड़ी तो थोड़ा बहुत अध्ययन मैं भी कर लिया करूँगा।'

'तुम मेरी जीवनशैली में बाधा तो नहीं डालोगे?'

'मेरा अपमान मत करो, चंद्रिका। तुम मुझे बचपन से जानती हो। उल्टा सीधा सोचना बंद करो। हमारे बड़े यही चाहते है कि हम दोनों शादी कर लें। अब मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?'

'हाँ प्रताप।' उसने कहा था और मेरा हाथ थाम लिया था।


मुझे प्रसन्न होना चाहिए था कि एक सुंदर और सुशिक्षित कन्या से मेरी शादी तय हो गई है। पर नहीं। उस दिन घर लौटा तो मन में सब कुछ उलझा उलझा था। पहले इस संबंध में गहराई से सोचा नहीं था और अब कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। ऊँट किसी करवट सीधा नहीं बैठ रहा था। लगता था कोई बहुत बड़ी मूर्खता कर डाली थी मैंने। मनोविज्ञान में एम.ए.। जीवविज्ञान में व्यक्तिगत अध्ययन। जब देखो कोई मोटी किताब पढ़ती रहती थी। चंद्रिका जैसी पुस्तकमुखी के साथ जीवन बिताने की बात सोच कैसे ली मैंने। वह तो मुझे संदर्भ दे कर बतायेगी कि प्यार कैसे करना चाहिए। दो दिनों में ही मेरी अवस्था हवा निकले टायर सी हो गई। ....


(कहानी का दूसरा और अंतिम भाग दिनांक 12 जुलाई को)

Monday, July 6, 2009

बहुत मनुहार के बाद भी...



कहानी रुकी नहीं

हम अनदेखा करते गये, होनी थी कि टली नहीं
मोड़ ले कर आगे बढ़ गई, कहानी रुकी नहीं

विकट पगडंडियाँ थी और घूप थी तेज
हम प्यासे रह गये पनिहारिन थी कि रुकी नहीं

बहती रही पुरवाई, और भीगती गई पलकें
साश्रु नयनों से पर एक भी आँसू टपका नहीं

हवाओं ने रुख फेरा और दिन जल्दी ढला नहीं,
रोशनी करते रहे रात भर सुबह का कोई पता नहीं

अब कौन जाने क्या है क्षितिज के उस पार
वहाँं जाने की राह कभी हमें मिली नहीं

करवटो की कहानी सिलवटों मे उलझती गई
मन का हिंडोला था कि कभी रुका नहीं

जिह्वा में अंकुश था होंठ थरथरा कर रह गये
बदलते गये अर्थ मौन के, शब्दों का पता नहीं

कुछ भी तो नहीं होता सरल यदि हम पी लेते गरल
जिन्दगी के घूँट पीते रहे, पर जिन्दगानी रुकी नहीं

बहुत मनुहार के बाद भी पाहुन रुका नहीं
प्यार होते होते रह गया पर हुआ नहीं

मथुरा कलौनी