Thursday, September 30, 2010

मगनखोला

मैं आया था यहाँ चुपके चुपके
अपनी ही भूमि पर
एक नितांत अजनबी की तरह
कई गाँठों वाली यादों की डोर से
अपना बचपन बाँध कर ले जाने के लिये।

मैं दस साल का था जब मैंने अपना गाँव छोड़ा था। उस समय गाँव की आबादी लगभग 40 थी, जिसमें से लगभग 10 जने फौज में या रोजी रोटी के चक्कर में बाहर रहते थे। साल-दो-साल में छुट्टी आते थे।

मगनखोला की बाईं ओर छोटा गाँव नवगाँव है जो मगनखोला से तो बड़ा ही है और दाहिनी ओर बड़ा गाँव बुडलगाँव है।

हमारा परिवार कलकत्ते जा कर बस गया था। गाँव से संबंध रहता ही था। चिट्ठी-पत्री चलती ही थी। पिता जी रिटायर होने के बाद गाँव में रहने आये थे। एक साल से अधिक नहीं रह पाये। खेती-बाड़ी नहीं कर सकते थे। सुविधाहीन पहाड़ी कठिन जीवन था। करने को कुछ था नहीं। पेन्शन के पैसों से सामान लाकर उस पहाड़ पर खाते थे। फिर साहस कर पिथैरागढ़ में रेस्तराँ खोला। तब का जमाना था। रेस्तराँ चला नहीं। अंत में तराई में घर बना कर वहीं रहने आये तो फिर गाँव का मुँह नहीं देखा। हम बाकी लोग तो बाहर ही बस गये थे। पहाड़ जाने के नाम पर पिथौरागढ़ में ही रुक जाते थे। कभी एक दिन के लिये कभी गाँव भी हो आते।

लगभग यही हाल मगनखोला के अन्य परिवारों का था। देखते देखते गाँव खाली हो गया। और अब तो उजाड़ है।




कुछ साल पहले जब मैं मगनखोला गया था तो यह दृश्‍य देखा और कैमरे में कैद कर लिया।
ये तीन औरतें, करीब तीन सालों से अकेली मगनखोला में रह रहीं थी। बाएँ वाली रिश्ते में मेरी भाभी लगती हैं।
बीच की लड़की बोल नहीं पाती है, गूँगी है। प्यार से सब उसे लाटी बुलाते हैं। साथ कहने को जग्गू नाम का कुत्ता था। एक रात को बाघ आया। किसी तरह उन तीनों ने अपनी जान बचाई पर जग्गू को नहीं बचा पाये। उसे बाघ ले गया था। और अगले दिन ही उन तीनों ने गाँव छोड़ दिया था।







लाटी पेड़ पर चढ़ी हुई है मेरे लिये नारंगी तोड़ रही है।






















यह पिछले साल का चित्र है। वही जगह है, अब यहाँ कोई नहीं रहता है।





घर के सामने की खुली जगह को खाला बोलते हैं। इसी खाला में मेरा बचपन बीता था। यहाँ पर त्यौहारों में और खुशी के अवसरों पर खेल (कुमाऊँनी झोड़ा, सामूहिक नाच) होते थे।
इसी खाला में मैंने पहली बार तिब्बती लामा को देखा था। हमें बचपन में डराया जाता था कि ढंग से रहो नहीं तो लामा अपनी झोली में डाल कर ले जाएगा। इसी खाला में हुड़क्या हुड़क्यानि का नाच भी देखा था।

अखरोट का पेड़। इसके अखरोट हाथ से हलका दबाते ही टूट जाते हैं। अब भी नवगाँव के लोग आते हैं और पुराने दिनों को याद करते हुए अखरोट ले जाते हैं।


गाँव के पास से काली नदी का दृश्य।











मगनखोला का मंदिर। भरे-पूरे दिनों में यहॉं शादी व्‍याह में लंगर लगते थे।









गाँव की एक ओर जानवरों के रहने के लिये खर्क थे। सब के सभी खर्क अब गिर चुके हैं। खर्क की सीढ़ियों से हिमालय का दृश्य अभी तक याद है।









बीते दिनों को पकड़ने की चेष्टा की
पर गहन सन्नाटे को भेद नहीं पाया
साँसों की आवाज ने चौंकाया
अंदर ही अंदर क्या कुछ फूटा पता नहीं
क्यों हुईं आँखें नम पता नहीं

अब यहाँ कोई नहीं रहता।
अब यहाँ कोई नहीं आता।

यहाँ मेरा बचपन बीता था।