तीन साल पहले जब मैं अपने नये फ्लैट में शिफ्ट हुआ तो खिड़की से यह दृश्य देखा।
भले ही बेंगलोर को उद्यानों का शहर कहते हैं पर खिड़की से झाँकने पर ऐसे दृश्य बहुत कम ही देखने को मिलते हैं।
ऐसे मनोरम बाग को देख कर दिल बाग-बाग हो गया था। सुबह पक्षियों के कलरव के साथ उठता था। बड़े पेड़ पर बंदरों का एक परिवार रहता था। उनकी दिनचर्या देखने का घंटों तक आनंद उठाया जा सकता था। फिर गिलहरियों का खेल। कैसे पेड़ की एक फुनगी से दूसरी में कूदती थीं। यह तब की बात थी।
वे आये थे कुल्हाड़े और मोटराइज्ड आरे लेकर। एक दिन में सारे पेड़ गिरा दिये। सारे झाड़ काट डाले। उस दिन बहुत ही दुखी मन से सोने गया था। सुबह पक्षियों का कलरव नहीं था। आर्तनाद था। पता नहीं कितने घोंसले उजड़े थे। बंदरों का परिवार पता नहीं कहाँ चला गया। एक हफ्ते तक वे ट्रकों में लकड़ियाँ भर कर ले जाते रहे। उस जगह प्रकृति का निर्मम बलात्कार हुआ था। एक गिलहरी की लाश दिखाई पड़ रही थी।
आज का दृश्य देखिये। पेड़ तो आरे से काट डाले गये थे। पर दूर और गहरी फैली हुई जड़ें तो खोद खोद कर ही निकालनी पड़ रही हैं। ऐसा लगता है किसी जानवर की लाश ऊपर गिद्ध पिले हुए हैं।
Monday, August 31, 2009
Saturday, August 8, 2009
अभी अभी पहाड़ से लौटा हूँ।
अभी अभी पहाड़ से लौटा हूँ।
एक नया गॉव देखा हड़तोला। भुवाली से कार से डेढ़ घंटे की चढ़ाई है। खूब बारिश हो रही थी।
पहाड़ों पर बरसात
बरसात बंद होने के बाद निखरा सौंदर्य
जिधर देखो फलों के बाग है।
हड़तोला से पिथेरागढ़ गये। अल्मोड़ा के पास भांग के झाड़ मिले। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भांग के पत्तों की पकोडि़यॉं भांग के सकारात्मक गुणों के साथ बहुत ही स्वादिष्ट होती हैं।
पिथौरागढ़ से वीर्थी जलप्रपात देखते हुए हम मुन्स्यारी गये।
मुन्स्यारी से पंचचूली का दृश्य
शाम को जब बादल छाए हुए थे
एक घस्यारन
एक नया गॉव देखा हड़तोला। भुवाली से कार से डेढ़ घंटे की चढ़ाई है। खूब बारिश हो रही थी।
पहाड़ों पर बरसात
बरसात बंद होने के बाद निखरा सौंदर्य
जिधर देखो फलों के बाग है।
हड़तोला से पिथेरागढ़ गये। अल्मोड़ा के पास भांग के झाड़ मिले। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भांग के पत्तों की पकोडि़यॉं भांग के सकारात्मक गुणों के साथ बहुत ही स्वादिष्ट होती हैं।
पिथौरागढ़ से वीर्थी जलप्रपात देखते हुए हम मुन्स्यारी गये।
मुन्स्यारी से पंचचूली का दृश्य
शाम को जब बादल छाए हुए थे
एक घस्यारन
Friday, August 7, 2009
वह एक आवारा कुत्ता था।
मैं तहसील के बाहर पत्थर पर बैठा इंतजार कर रहा था। वह मंथर गति से शाही चाल चलता हुआ मेरे पास आया। अपनी पनीली आँखों से मुझे देखने लगा मानो कह रहा हो
'कुछ खिलाना-वाना है तो बोलो। नहीं तो मैं चलता हूँ।'
मुझे उसका यह एटिच्यूड भा गया। मुझे भी भूख लग ही रही थी। पास की दुकान से पूरी-भाजी के दो पत्तल लिये। एक अपने लिए और दूसरा उसके लिए। उसके सामने पत्तल परोसा। उसने पहले मेरी ओर देखा और फिर खाने पर ध्यान दिया। खाने के बाद वह अपनी राह चला और मैं अपनी राह।
दो दिन यही कार्यक्रम चला। तीसरे दिन भी वह आया। चाल मतवाली थी। मेरे पास आते-आते वह लड़खड़ाया और गिर गया। उसके जबड़े भिंच गये थे। वह अप्राकृतिक रूप से बहुत जल्दी-जल्दी साँस लेने लगा। साँस लेने में उसे कष्ट हो रहा था।
'लगता है इसको लकवा मार गया है।'
'अरे कोई इसे अस्पताल ले जाओ।'
'इसके मुँह में पानी डालो।'
किसी ने उसके मुँह के ऊपर एक गिलास से पानी डाला। वह उठ खड़ा हुआ। फिर लड़खड़ा कर गिर पड़ा। तभी तहसील के अंदर मेरा नाम पुकारा गया और मैं अंदर चला गया। लगभग एक घंटे के बाद बाहर आया तो वह उसकी साँसें बंद हो चुकी थीं। उसके मुँह के ऊपर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं।
यह एक साधारण सी घटना है। गली का कुत्ता था, मर गया। पर मैं भुला नहीं पा रहा हूँ। उसका छरहरा बदन, उसकी वह चाल, उसका उन अभेद्य पनीली आँखों से मुझे देखना। संक्षिप्त ही सही, कहीं तो कोई अपरिभाषित संपर्क सूत्र था हम दोनों के बीच।
वह एक आवारा कुता था।
आवारगी का अपना रोमांच है, अपना रोमांस है। आदमियों की बात करें तो आवारगी की पराकाष्ठा अकबर इलाहाबादी के इस शेर में निहित है।
हुए इस कदर मुहज्ज़ब, कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में, मरे तो अस्पताल जा कर।
उस कुत्ते की बात करें तो मानो वह कह रहा हो
न रहे हम कभी किसी के, न कोई हमारा।
तुम्हें ही मुबारक अब ये गली ये चौवारा।
(मुहज्ज़ब - सभ्य)
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