Tuesday, September 23, 2008

कैले बजै मुरूली







उत्तराखंड का नाम लेते ही मन में कई चित्र उभरते हैं। एक बार याद करने लगें तो उन चित्रों में मन ऐसा रमता है कि
सारी दुनिया को भुला बैठे
हम अपने पहाड़ को याद कर बैठे।

क्यों न हो हमारा पहाड़ है ही ऐया। जाड़ों की ठिठुरती सर्दी में जब चारों ओर फुसरपट्ट (बर्फ की सफेद चादर) होती है तब
लिहाफ के अंदर ठंडी अंगुलियॉं छुआने की शैतानी या सग्गड़ में सुलगते उपलों की गर्मी का जिसने अनुभव किया हो वही जान सकता है सही मानों में पहाड़ी होने का अर्थ। बिना अल्मोड़ा गये अल्मोड़ा के बारे में अनुमान कितना सही हो सकता है वह इस कहावत से विदित होता है -
न गये अल्मोड़ा, ना लाग्या गजमोड़ा

जब याद आती है उत्तराखंड की, जब निसास लगता है तो मन कैसा जो हो जाता है।

उत्तराखंड
हिमालय के ललाट पर तिलक है।
देवताओं की क्रीड़ास्थली है, देवभूमि है।

मंदिरों का देश है। मुनियों की तपोभूमि है।
भरत की जन्मभूमि है। कन्व का आश्रम है।

पांडवों का अज्ञातवास है।
संजीवनी बूटी है, च्यवनप्रास है।

सुमित्रानंदन का पल्लव है।
कालिदास की उड़ान है।


यहॉं ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं और महेश हैं।
अंतहीन सीढ़ीदार खेत हैं।
अल्हड़ पहाड़ी नदियॉं हैं।
तीखी धार पर घास काटती युवतियॉं हैं।



बुरूँस के फूल हैं। देवदार और चीड़ के पेड़ हैं
काफल, हिसालू, किलमोड़ी हैं। जंगली मेल हैं।

गाड़-गोध्यारों में लुकाछिपी का खेल है।
नानतिनों का नानतिन्योल है। (बच्चों के खेल)

डाड़े में बिरहन का गीत है।
धाध देती बौजी है।
मंदिरों की घंटियॉं हैं
होली की मदमस्त बैठकें हैं।

रायता है, आलू के गुटके हैं।
भांग की चटनी है, भुटुवा साग है।

चौमास के वन हैं, हिमाच्छादित चोटियॉं हैं।
लुभावनी पगडंडियॉं हैं। ओढ्यार हैं।
गढ़वाल है, कुमाऊँ है, भाभर है।

हुड़के की थाप है, छलियों की भास है।
कठिन जीवन है, सरल हास है।

बाब्बा हो, कितनास बड़ा कैनवास है।

Wednesday, September 17, 2008

पाराशर जी की पीड़ा

कनाडा से पाराशर गौर जी ने यह कविता भेजी है। ज्‍यों की त्‍यों यहॉं रख रहा हूँ।

पाराशर जी संवेदनशील व्‍यक्‍ति हैं तथा दिल से लिखते हैं।

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ये कविता उनको समर्पित जो देहली के धमाको मारे गए या ज़ख्मे हुए !
पीड़ा
आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बाँटते थे अपना अमनोचैन
दुःख दर्द , कल के सपने
घर की दहलीज़ पर देती दस्तक
आज की सांझ , ओ सांझ न थी ... आज की

दूर छितिज पर ढलती लालिमा
आज सिंदूरी रंग की अपेक्षा
कुछ ज्यादा ही गाढ़ी लाल देखाई दे रही थी
उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
जो अहसास दिला रही थी
दिन के कत्ल होने का
आज की फिजा , ओ फिजा न थी .... आज की शाम

चौक से जाती गलियॉं
उदास थीं ...
गुजरता मोड़ ,
गुमसुम था
खेत की मेंड भी
गमगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये शहर , आज वो शहर न था ... आज की शाम

धमाकों के साथ चीखते स्वर
साहरो की तलाश में भटकते
लहू में सने हाथ ......
अफरा तफरी में भागते गिरते लोग
ये रौनकी बाजार पल में शमसान बनगया
यहाँ पर पहिले एसा मौहोल तो कभी न था
ये क्या होगया ? किसके नजर लग गयी ... आज की शाम

बर्षो साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होनेवाला हाथ
हाथ छुटा
सपनो की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते देखते भाई से बिछुड़ी बहिना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई माँ की गोदे होई खाली
कई शुहगुना का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगा ई
ये कौन है ? मुझे भी तो बताऊ भाई ... आज

पराशर गौर
कनाडा १५ सितम्बर २००८ शाम ४ बजे

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Wednesday, September 10, 2008

एकदम ब्रिलियंट


सर न्यूटन के सर में सेब गिरा था तो उनके ज्ञानचक्षु खुले और उन्होंने हमें गुरुत्वाकर्षण के बारे में बताया था। मुंगेर में आम के बाग में टहलते हुए मेरे सिर में एक पका आम गिरा था। मैं ज्ञान चंक्षु के बारे में तो नही कह सकता हॉं मेरे भौतिक चक्षु एक क्षण के लिए बंद हो गए थे। उस क्षण में मेरी क्षुधा जाग्रित हुई और ऑख खुलते ही मैं उस आम को खा गया। यह प्रकरण इसलिए याद आया कि अभी एक ऐसी चीज मेरी झोली में गिरी है जिसको मैं खा नहीं सकता। अब उसका क्या करूँ।

~nm ने Brilliante Weblog award मेरी झोली में डाला है। मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मेरे ब्लॉग को इस योग्य समझा। अवार्ड मिलने की प्रसन्नता तो है ही, साथ ही यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि अवार्ड के साथ नियमवाली भी है जिसमें यह बताया गया हे कि अवार्ड मिलने पर क्या करना है। मुलाहजा फरमाइये

"The Brilliant Weblog Award- a prize given to sites and blogs that are smart and brilliant both in their content and their design. The purpose of the prize is to promote as many blogs as possible in the blogosphere.

Here are the rules to follow:
When you receive the prize you must write a post showing it, together with the name of who has given it to you, and link back to them.

Choose a minimum of 7 blogs (or even more) that you find brilliant in content or design.

Show their names and links and leave them a comment informing them that they have been awarded with the ‘Brilliant Weblog’ award.

Show a picture of those who awarded you and those you give the prize (optional) to.

And the award goes to:

उडन तश्तरी
यह ब्‍लॉग समीर जी का है जो एक पहुँचे हुए लेखक हैं। लेखनी में धार ऐसी कि कब क्‍या छील लें पता ही नहीं चलेगा।

काव्‍यकला
सुलझे हुए वाक्‍य और काव्‍य पंक्‍तियॉं। दुरूहता का दूर दूर तक नामोनिशॉं नहीं।

ननिहाल
हिन्‍दी वर्णमाला सीखने-सिखाने के लिये बहुत ही रोचक विधि ।

दिल की बात
एक डॉक्‍टर के हृदयोद्गार।

मानसिक हलचल
विविध विषयों पर ज्ञानदत्त पाण्डेय का रोचक ब्लॉग| ब्‍लॉगनारा है - अटको मत। चलते चलो।

सब का मालिक एक है
संवेदनशील मुद्दों पर विचार विमर्श

Life and other such nonsense
यह व्‍लॉग अँग्रेजी में है। आप किसी भी मन:स्‍थिति में हों, यह ब्‍लॉग पढिए होंठों पर स्‍मितरेखा बरबस खिंच जायेगी।

Monday, September 1, 2008

टोपी

अपनी एक पृथक पहचान बनाने की इच्छा सब में होती है, क्या छोटे, क्या बड़े। मूल में शायद यही कारण रहा हो जब मैं बचपन में निरामिष होकर गाँधी टोपी पहनने लगा था। वैसे सच कहूँ तो गाँधी जी और अनके आदर्शों का प्रभाव तो था ही ।

उन दिनों मेरी उस टोपी से घर में माँ-बाप बहुत परेशान हो गए थे। मेरी मित्र मंडली को एक नया खेल मिल गया था कि किस तरह मेरी टोपी उड़ाई जाय। मेरे शिक्षकगण मेरी टोपी को देख कर ऐसा मुँह बनाते थे जैसे अम्ल की खट्टी डकार आई हो।

मुझे तरह-तरह से उकसाया जाने लगा कि बेटे यह क्या टोपी पहनते हो ! इसका रिवाज नहीं है आजकल। या, बेटे देखो माँ को कितना कष्ट होता है जब घर में सामिष भोजन बनता है। तुम्हारे लिए अलग से खाना बनाना पड़ता है।

मुझे स्थिति विडंबनापूर्ण लगी थी। एक ओर तो हमें स्कूल इसलिए भेजा जाता था कि हम गाँधी नेहरु की तरह महान बनें। दूसरी ओर गाँधी जी से प्रभावित हो कर एक छोटा सा कदम उस दिशा में क्या रख दिया बस सभी रास्ते में रोड़े अटकाने लगे थे।

या तो गाँधी जी का प्रभाव मेरे ऊपर अधिक था या मैं बहुत जिद्दी था, क्यों कि न मैंने टोपी पहनना छोड़ा और न ही अपने आहार में परिवर्तन किया। मुझे ले कर मेरे माँ-बाप के चेहरे चिंतित रहने लगे थे। उनकी कानाफूसी बढ़ गई थी।
अध्यापक एक दूसरे को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते रहे और सहपाठीगण षड़यंत्र रचते रहे पर गाँधी टोपी मेरे सिर के ऊपर चिपकी रही।

मैं अपने गणित के अध्यापक को बहुत मानता था। एक वे ही थे जो मेरी टोपी को देख कर अपना मुँह विकृत नहीं करते थे। इन्ही अध्यापक की कक्षा में एक दिन एक लड़के ने पीछे से आकर मेरे सिर से टोपी उठाई और ब्लैकबोर्ड के पास फैंक दी। पूरी कक्षा हो हो कर हँसने लगी थी। अध्यापक ने मेरी टोपी की ओर देखा और फिर मेरी ओर देखा और मुसकुराने लगे। मेरे आश्चर्य का पारावार नहीं। मैंने कहा, 'सर, आप...'

'मैं अगर तुम्हारा सहपाठी होता तो तुम्हारी टोपी कभी की उड़ा देता।' उन्होने कहा था।

उनकी यह बात मुझे कहीं गहरे कोंच गई। मैंने टोपी त्याग दी। निरामिष से सामिष हो गया। समय ने घाव तो भर दिया है पर अभी तक सरसराता है।

बचपन की इस घटना से मुझे टोपी कॉम्प्लेक्स हो गया है। हैट हो या कैप, टोप हो या टोपी सभी प्रकार की टोपियों को देख कर मेरा दिल ललचाता है। काश मैं ये सब बेझिझक पहन पाता! इतिहास की पुस्तकों में जब मैं सभी महान सिरों को किसी ने किसी प्रकार की टोपी के अंदर पाता हूँ तो मेरे दिल में एक मुक्का लगता है।

अभी कुछ दिन पहले टोपी को लेकर मेरे साथ एक और वाकया हुआ है। जाड़ों में ठंड से मेरी नाक बंद हो जा रही थी। इलाज मुझे मालूम था, यानी सिर को ढक कर रखना। उसके लिए आवश्यकता थी एक टोपी की। तो एक दिन साहस करके ऊन की एक मंकी कैप ले ही आया। इरादा था केवल रात को पहनने का क्योंकि रात को कौन देखता है। वैसे भी सिर ढकने की अधिक आवश्यकता रात को ही होती है। पत्नी के सामने टोपी पहनने का तो खैर प्रश्न ही नहीं उठता है। जब पत्नी सो गई तो मैं आधी रात में चुपके से उठा और टोपी निकाल कर पहन ली। कितनी तृप्ति हुई मुझे। कितना आराम आया। बहुत देर तक यूँ ही बैठा रहा और इस नई अनुभूति का आनंद लेता रहा। फिर उस ठंडी रात में सिर में गर्माहट लिए मैं सो गया।

आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी यह हिमाकत मेरे लिए कितनी महंगी पड़ी। जब किस्मत ही खराब हो तो आप क्या कर सकते हैं। साधारणतया गहन निद्रा में सोनेवाली पत्नी को उस दिन आधी रात में उठना ही था। वह इतनी जोर से चिल्लाई थी कि मेरे बाएँ कान में गूँज अभी तक बाकी है। पड़ोसी तक आ गए थे।

वो दिन है और आज का दिन है, मैं अपनी टोपी पहनने की इच्छा को दबाये जिए जा रहा हूँ। काश मैं विलायत में पैदा होता। वे लोग टोपी के माहात्म्य से अच्छी तरह परिचित हैं। सोने के लिए ऊनी तिकोनी टोपी से लेकर नहाने के लिए बेदिंग कैप तक, प्रत्येक अवसर के लिए टोपियाँ निर्धारित हैं। और हमारे यहाँ! हमारे यहाँ कलियुग इतना घोर हो गया है कि टोपी पहनना और टोपी पहनाना, इनका अर्थ ही बदल गया है।

मथुरा कलौनी