Sunday, August 24, 2008

'घर की मुर्गी दाल बराबर'

चंद्रकान्ता के बारे में लोगों को याद आता है कि इस नाम का एक टीवी सीरियल आया था। बहुतों को मालूम है कि इस नाम की एक किताब भी है। पर गिनेचुने ही मिलेंगे जिन्होंने इसे पढ़ा है।

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि चंद्रकान्ता, चंद्रकान्ता संतति, भूतनाथ, रोहासमठ एक ही कहानी शृंखला की पुस्तके हैं।

चंद्रकान्ता संतति में एक ऐसी कटार का उल्लेख है जिसके कब्जे को दबाने से चकाचौंध करने वाली रोशनी निकलती है। इस कटार का आविष्कार लेखक देवकीनंदन खत्री ने सन 1890 के आसपास किया था। Star Trek की विद्युत तलवार तो 80 - 90 साल बाद आई।

इतना ही नहीं कटार को छूने से बदन में बिजली की तरंग दौड़ जाती है तथा छूनेवाला बेहोश हो जाता है। इस असर का काट एक अंगूठी में होता है। अंगूठी पहन कर ही कोई कटार को हाथ में ले सकता है। कहीं कोई कटार और अंगूठी छीन ले इस डर से कहानी की खलनायिका आपना जंघा काट कर उसमें अंगूठी छिपा देती है।

मुझे यह कहानी इस लिये याद आई कि अभी हाल ही में बदन में चिप embed करने की तरकीब के बारे में पढ़ा था। तरकीब तो अब निकली है पर इसकी कल्पना देवकीनंदन खत्री जी ने सौ साल पहले ही कर ली थी।

अफसोस हाता है कि हम अपनी सोच, अपनी धरोहर, अपनी परंपरा को उतना महत् नहीं देते हैं। हैरी पॉटर खरीदने के लिये एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं चंद्रकान्ता के बारे में जानने तक का प्रयास नहीं करते।
यह हमारे देश की ही कहावत है 'घर की मुर्गी दाल बराबर'

जब भूतनाथ जैसे रहस्यमय पात्र से मिलेंगे तो आपको स्वयं अपने ऊपर आश्चर्य होगा कि मैं अब तक क्या कर रहा था।

Wednesday, August 13, 2008

युद्धभूमि

कल यहाँ युद्ध का उन्माद था
आज लाशों की सड़ाँध
ले कर आया नया प्रभात है
अब यहाँ कोई नहीं आयेगा
यहाँ न तोपों की गर्जन है
न ही कैमरे और न बरखा दत्त है

चुके हुये युद्ध में कौन रुचि दिखाता है
एक नये युद्ध की खोज में आज का संवाददाता है।

इस युद्धभूमि में एक बार फिर
मनभावन हरियाली छायेगी
खेत लहलहायेंगे
और प्रतीक्षा करेंगे
एक नये उन्माद की
एक नये विनाश की

वही धरती है वही आसमान
क्षितिज सिमटता जा रहा है
रुदन और क्रंदन ही जीवन स्पंदन
बनता जा रहा है

कौन करेगा शांति नृत्य
कौन पहनेगा पायल
अब बचा ही है कौन
जिसके पाँव नहीं हों घायल

-मथुरा कलौनी

Saturday, August 2, 2008

कहॉं कमी रह गई?

मेरे एक कोरियन मित्र हैं। नाम है री।
अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मलनों में उनसे मुठभेड़ होती रहती है। मुझे देखते ही वे तपाक से बालते हैं
हल्‍लो मिस्‍टर कलौनी
मैं बोलता हूँ हल्‍लो मिस्‍टर री
वे बालते हैं हाउ आर यू
मैं बोलता हूँ हाउ आर यू

इससे आगे मैं कुछ भी पूछूँ, उत्‍तर में वे बड़ी प्‍यारी सी मुसकान बिखेर देते हैं। क्‍यों कि इससे आगे वे अँग्रेजी में नहीं बोल पाते। कोरिया इतना उन्‍नत देश है पर वहॉं के लोग अँग्रेजी नहीं बोल पाते। हमें देखो हम अँग्रेजों से अच्‍छी अँग्रेजी बोलते हैं।

उत्‍तरप्रदेश के शहर सहारनपुर के एक होटल में एक बार मैंने रिशेप्‍शन में फोन कर अपने कमरे में एक बीयर भेजने के लिये कहा। रिशेप्‍शन की लड़की ने कहा,
सौरी सर हम बीयर 'प्रोभाइड' नहीं कर पायेंगे।

उसके 'प्रोभाइड' शब्‍द के प्रयोग पर मन प्रसन्‍न हो गया था। लगा था, हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। देश का भविष्‍य सुरक्षित है। इस विशुद्ध हिन्‍दी घाटी में जब अँग्रेजी के 'प्रोभाइड' जैसे शब्‍द का प्रयोग इतना आम है तो देश के भविष्‍य के बारे में चिंता करना व्‍यर्थ है।

पहली बार जब विलायत गया था तो मैंने पाया कि अँग्रेज अँग्रेजी कर उच्‍चारण ठीक से नहीं करते। अँग्रेजों का अँग्रेजी ज्ञान भारतीयों की तुलना में उन्‍नीस ही पड़ता है। अँग्रजों की अँग्रजी पर अमेरिकन छा गई है। शायद यही कारण है कि अँग्रेज अब उतनी तरक्‍की नहीं कर रहे हैं।
पर हमारी अँग्रजी अभी तक प्‍योर है। वैसी ही जैसी अँग्रेज छोड़ कर गये थे।

वैसे देखा जाय तो इंगलैण्‍ड और अमेरिका का भी भविष्‍य उज्‍वल है। क्‍यों न हो वहॉं प्राय: सभी बच्‍चे अँग्रेजी में ही बोलते हैं। हमारे भारत में अभी तक यह स्‍थिति नहीं आई है। यहॉं आज भी कई स्‍कूल ऐसे है, विशेष कर राजकीय विद्यालय जो आरंभिक शिक्षा प्रांतीय भाषा में ही देते हैं। मुझे उम्‍मीद है कि बहुत शीघ्र ही स्‍थिति में सुधार हो जायेगा। हॉं संभ्रांत परिवारों की बात अलग है। उत्‍तराखण्‍ड से लेकर उत्‍तर कन्‍नड़ तक संभ्रांत परिवार के बच्‍चे आरंभिक शिक्षा अँग्रेजी में ही लेते हैं।

कभी कभी मन में शंका भी होती है कि कोरिया जापान जैसे देश जो दुनिया भर में छाये हुये हैं, बिना अँग्रेजी के कैसे इतनी तरक्‍की कर गये! वहॉं के लोग अँग्रजी के हैव-नो-हैव जैसे दो चार शब्‍दों से ही काम चला लेते हैं। हमारे देश में बेंत मार-मार कर अँग्रेजी सिखाई जाती है। हम अँग्रजों से अच्‍छी अँग्रजी बोल लेते हैं। पर पता नहीं कहॉं कमी रह गई?